अहमद फ़राज़ का इंकलाबी पहलु
फ़राज़ तानाशाही व्यवस्था को बिना डरे, बिना झुके पूरी जिंदगी आँख दिखाते रहे।
अमूमन यह तरीका होता है कि हम किसी व्यक्ति/कलाकार को समग्रता में नहीं देखते बल्कि उसके किसी हिस्से को, बहुत संभव है, कि वह हिस्सा काफी महत्वपूर्ण भी हो, ज्यादा उभार कर ऐसे प्रस्तुत करते हैं। इस प्रक्रिया में उस व्यक्ति/ कलाकार के दूसरे हिस्से अनदेखे रह जाते हैं। अहमद फ़राज़ के साथ भी ऐसा ही हुआ। यह सच है कि मुहब्बत के हर आयाम पर उनके यहां नज़्म हमें मिलते हैं, पर हम उनके मिजाज़ के इंकलाबी तेवर, उनकी नज़्मों की इंकलाबी तासीर को अनजाने में अनदेखा कर जाते हैं।
‘फ़राज़’ के कलमी नाम से मशहूर शायर सैयद अहमद शाह हालिया ज़माने के उम्दा शायरों में शुमार है। फ़राज़ को गुज़रे अब 14 साल हो चुके हैं पर उनकी छोड़ी हुई विरासत आज भी पढने वालों के ज़ेहन में बरक़रार है। फ़राज़ की पैदाइश अविभाजित भारत में हुई जो अब पाकिस्तान के नौशहरा शहर में है। फ़राज़ को अक्सर रोमांटिक जीनियस कहा जाता है और उनकी लोकप्रियता भारत में काफ़ी अधिक है।
अपने कॉलेज के ज़माने से ही उन्होंने प्रेम, रोमांस, निराशा और दुख जैसे विषयों पर लिखना शुरू कर दिया था। फ़राज़ ने एडवर्ड कॉलेज, पेशावर और पेशावर कॉलेज से तालीम हासिल की और उनका पहला संग्रह ‘तन्हा तन्हा’ उनके स्नातक के दौरान प्रकाशित हुआ।
प्रोग्रेसिव मूवमेंट के दौरान मिर्जा गालिब, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और अली सरदार जाफरी से प्रेरित होकर अहमद फराज ने रेडियो पाकिस्तान के लिए एक पटकथा लेखक के रूप में अपना करियर शुरू किया और बाद में पेशावर विश्वविद्यालय में उर्दू के शिक्षक बन गए। 1950 से जीवन पर्यंत और जीवन के बाद भी अहमद फ़राज़ की ख्याति बढ़ती रही। उन्हें अंतरराष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर कई पुरस्कारों से नवाज़ा जा चुका है। उनके साहित्यिक योगदान को देखते हुए उन्हें दूसरे देशों ने भी सम्मानित किया है।
अहमद फ़राज़, वैसे शायर गुज़रे हैं जिनके लिखे हुए गजलों ने युवाओं को काफ़ी बेचैन और बेकरार किया है। हाल में ऐसा कोई उर्दू का शायर नहीं हुआ जिसने फ़राज़ की तरह लोगों को आकर्षित किया हो। फ़राज़ को उनलोगों ने और पसंद किया है जिन्हें उर्दू शायरी का अंदाज़ा तक नहीं। उनके पढ़ने वालों की जमात में भाषा और राष्ट्रीयता जैसे सभी बैरियर के परे पूरी दुनिया के लोग शामिल हैं। नफ़रत, हिंसा और इंसानियत से दूर होते इस मुआशरे में फ़राज़ के इश्क़, रोमांस, दुख और निराशा पर लिखे हुए ग़ज़ल लोगों को जोड़ते हैं।
फ़राज़ अक्सर अपनी शायरी में रिश्तों के टूटने की बात करते थे, लेकिन साहित्यिक हलकों में उनकी कविताओं की गूंज बताती है कि उनके पढ़नेवालों के साथ उनके रिश्ते कभी खत्म नहीं होंगे। हालाँकि फ़राज़ की शायरी का एक दूसरा पहलू भी जिसको लोग कम जानते हैं। फ़राज़ ने पाकिस्तान में सैन्य तानाशाही को रिजेक्ट किया जिसके लिए उन्हें गिरफ्तार भी किया गया।
हालांकि फ़राज़ का शुरुआती काम काफी हद तक रोमांटिक उर्दू शायरी तक सीमित था, पर 1970 के दशक के आते आते तक वो पूरी तरह से प्रगतिशील और स्टेट के कठोर आलोचक बन चुके थे। बांग्लादेश और बलूचिस्तान में सेना के अत्याचारों से दुखी होकर फ़राज़ ने एक कविता लिखी, जिसके लिए उन्हें सत्ता का क्रोध सहना पड़ा। सेना के द्वारा अपने ही नागरिकों पर की गयी क्रूरता के ख़िलाफ़ लिखने पर उन्हें देशद्रोही करार दिया गया और उन पर देशद्रोह का आरोप लगाकर उन्हें अटक जेल में दो महीनों के एकांत कारावास में भेज दिया गया।
फ़राज़ अपने ज़ुबान में कहते हैं कि उन्हें जिस नज़्म के लिए आर्मी उठा ले गई थी उसका उनवान है ‘पेशावर कातिलों’ जिस के कुछ हिस्से हैं…
जिनके जबरों को अपनों का खून लग गया
ज़ुल्म के सभी हदें पाटने आयेंगे
क़त्ल ए बंगाल के बाद मेहरान में
शहरियों के गले काटने आयेंगे
फ़राज़ की कैद के कुछ ही वक़्त बाद, 1977 में बेनज़ीर भुट्टो को ज़िया उल हक़ ने तख्तापलट कर हटा दिया और अपनी तानाशाही स्थापित की। पाकिस्तान में सैन्य शासन एक बार फिर से वापस आ चुका था लेकिन तख्तापलट के बाद हुए डर और सेंसरशिप के माहौल में भी, फ़राज़ चुप नहीं हुए। कराची में एक सार्वजनिक समारोह में अपनी एक इंक़लाबी नज़्म पढ़ते वक़त उन्हें रोका गया और उन्हें आधिकारिक तौर पर सिंध से निकाल दिया गया। वह नज़्म थी ‘मुहासरा’ जिसके कुछ शेर यहाँ है..
मैं कट गिरूँ कि सलामत रहूँ यक़ीं है मुझे
कि ये हिसार-ए-सितम कोई तो गिराएगा
तमाम उम्र की ईज़ा-नसीबियों की क़सम
मिरे क़लम का सफ़र राएगाँ न जाएगा
फ़राज़ ने अपने वतन से दूर रहने का निर्णय लिया और 6 साल तक सेल्फ़ इमपोज्ड़ इग़जाइल में रहे। उन्होंने इस दौरान कई मुल्कों का दौरा किया, ग़ज़ल लिखे और उन्हें पढ़ना जारी रखा। उनके घर वापस आने पर उन्हें साहित्य अकादमी का अध्यक्ष और बाद में नेशनल बुक फाउंडेशन का प्रमुख नियुक्त किया गया।
लेकिन जैसे ही जनरल मुशर्रफ तानाशाह के तौर पर मज़बूत हुए और फ़राज़ ने खुद को सरेंडर करने से इनकार किया और स्टेट और सेना पर अपनी आलोचनाएँ जारी रखी तो उन्हें 2006 में उनके पद से बर्खास्त कर दिया गया। उन्हें और उनके परिवार को उनके घर से निकाल दिया गया और उनके सामान सड़कों पर फेंक दिए गये।
फ़राज़ तानाशाही व्यवस्था को बिना डरे, बिना झुके पूरी जिंदगी आँख दिखाते रहे। पाकिस्तान में एक प्रोटेस्ट में उन्होंने कहा था “अगर मैं अपने आस-पास होने वाली दुखद घटनाओं का मूक दर्शक बना रहा तो मेरी अंतरात्मा मुझे माफ नहीं करेगी। कम से कम मैं यह कर सकता हूं कि तानाशाही व्यवस्था को पता चले कि मैं कहाँ खड़ा हूँ जब एक आम आदमी के मौलिक अधिकार हड़प लिए गए हैं।”
फ़राज़ की एक नज़्म जो उन्होंने हिंसक और असहिष्णु समय में लिखा था वह आज के भारत में बड़े पैमाने पर फैले कट्टरता, असहिष्णुता, फासीवाद और असंतोष के माहौल में प्रासंगिक हो जाता है। वह नज़्म कुछ इस तरह है:
तुम अपने अक़ीदों के नेज़े
हर दिल में उतारे जाते हो
हम लोग मोहब्बत वाले हैं
तुम ख़ंजर क्यूं लहराते हो
इस शहर में नग़्मे बहने दो
बस्ती में हमें भी रहने दो
हम पालनहार हैं फूलों के
हम ख़ुश्बू के रखवाले हैं
तुम किस का लहू पीने आए
हम प्यार सिखाने वाले हैं
इस शहर में फिर क्या देखोगे
जब हर्फ़ यहाँ मर जाएगा
जब तेग़ पे लय कट जाएगी
जब शेर सफ़र कर जाएगा
जब क़त्ल हुआ सुर साज़ों का
जब काल पड़ा आवाज़ों का
जब शहर खंडहर बन जाएगा
फिर किस पर संग उठाओगे
अपने चेहरे आईनों में
जब देखोगे डर जाओगे
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