1995 का वह साल जब लालू यादव व्यक्ति से ऊपर उठकर विचार बन चुके थे।
Lal Babu Lalit
1995 का वह साल था। मुख्यमंत्री बने लालू यादव को 5 साल हो चुका था। अपने मुख्यमंत्रित्व में लालू यादव पहली बार बिहार विधानसभा चुनाव का सामना करने जा रहे थे।
जब 1989 में लालू यादव को विधायक दल ने अपना नेता चुना, तब मानो उस खेमे में आग लग गयी। कोफ्त और कुढ़न से गुजरते हुए उनलोगों ने तंज कसना शुरू कर दिया था। गुआर आदमी क्या शासन करेगा। साल भर भी सरकार नहीं चलेगी। शाप देने से लेकर हवन पूजन के सहारे लालू यादव की सरकार को कोसने के सारे यत्न किये जाने लगे।
मगर लालू यादव ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया था और 6 महीना बीतते बीतते लग गया था कि लालू लंबी पारी खेलेंगे। जिसका नतीजा पिछड़े और दलितों के आत्मविश्वास और आत्मसम्मान से लबरेज होने के रूप में सामने आया। असल में लालू यादव ने अपने शासन की दिशा और दशा भी उसी तरफ मोड़ दी थी। टी एन शेषण ने अपना जलवा दिखा दिया था।
अब तक हुए सम्पन्न चुनावों से लोगों ने यह समझ लिया था कि चुनाव आयोग क्या चीज है । शायद यह पहला शख्स था जिसने लोगों को यह अहसास कराया था कि चुनाव आयोग एक स्वायत्त संस्था है और उसके अपने अधिकार और अपनी ताकत है।
बिहार के हर कोने में ‘सी आर पी एफ’, ‘आई टी बी पी’, ‘आर ए एफ’, और कहीं कहीं ‘बी एस एफ’ के जवानों को भेजा जा रहा था। कांग्रेस ने बिहार और अन्य राज्यों में बूथ लूट की जो संस्कृति विकसित की थी, उसमें निष्पक्ष चुनाव की बात बेमानी समझी जाती थी। दलितों और पिछड़ों का एक बहुत बड़ा तबका था जिसने आज़ादी के बाद से अब तक वोट डाला ही नहीं था। सामंत और सवर्ण के गुंडे जो कांग्रेस के लिए काम करते थे, उन वंचित तबके के लोगों को पोलिंग बूथ तक पहुँचने ही नहीं देते थे। उनके वोट भी कांग्रेस के पक्ष में लूट लिए जाते थे।
शेषण के सामने भी यही चुनौती थी कि क्या वे इस बूथ लूट की संस्कृति को रोकने में कामयाब हो पाएँगे? इन्हीं आशंकाओं के बीच और चाक चौबंद सुरक्षा में 1995 के विधानसभा चुनाव हुए। जनता दल, भाकपा, माकपा आदि गठबंधन कर चुनाव लड़ रही थी। मेरा जो गृह जिला है वहाँ के भाकपा उम्मीदवार जिनमें रामचंद्र यादव, लाल बिहारी यादव, राम नरेश पांडेय आदि अभी तक अपनी जिंदगी के कीमती साल चुनाव लड़ते ही बीता चुके थे। लेकिन उनके ऊपर से भूतपूर्व प्रत्याशी का लेबल ही चिपका हुआ था। पूरा जिला कांग्रेस मय था। ये सिर्फ लड़ने के लिए लड़ते थे। इनको भी मालूम था कि कांग्रेस के गुंडे इन्हे विधायक बनने से वंचित ही रखेंगे।
इसी माहौल में चुनाव सम्पन्न हुए। चुनाव में बूथ लूट को रोका जा सके और सुरक्षा के बंदोबस्त मुक़म्मल हों, इसलिए पहली बार कई चरणों में चुनाव कराने का फैसला चुनाव आयोग ने लिया।
चुनाव संपन्न हुए। तत्कालीन अखबारों में खबर पटी हुई थी। अमुक लोगों ने पहली बार वोट डाले। अमुक दलित मुहल्ले में आजादी के बाद पहली बार वोट डालने का अवसर मिला। दलित और पिछड़ों के बीच एक अभूतपूर्व उत्साह देखा गया
परिणाम की जब घोषणा हुई तो इतिहास बदल चुका था। 324 सदस्यीय विधानसभा की तस्वीर और तासीर दोनों बदल चुकी थी। थोक में और सैकड़ों की संख्या में पिछड़े वर्ग से विधायक चुने गए। वे लोग भी विधायक बने जो अब तक भूतपूर्व प्रत्याशी के तौर पर अपनी जिंदगी के स्वर्णिम काल को पीछे छोड़ चुके थे। और यह उम्मीद भी कि वे अब कभी विधायक बन भी पायेंगे। कई विधानसभा का इतिहास ही बदल गया था। जहाँ पर काँग्रेस आजादी के बाद कभी हारी नहीं, वहाँ भी उनके उम्मीदवार हार चुके थे। मनीगाछी भी एक ऐसा ही क्षेत्र था। आजादी से लेकर अब तक नागेंद् झा, मदन मोहन झा आदि कांग्रेस से जीतते आ रहे थे।
1995 में इतिहास बदला। पहली बार ललित यादव के रूप में ग़ैर कांग्रेस कोई विधायक बना। और ऐसा बदलाव एक नहीं पचासों क्षेत्र में हुआ।
बिहार एक नए दौर में प्रवेश कर चुका था। यहाँ से यह तय हो चुका था कि अब इसे उल्टी धारा में नहीं ले जाया जा सकेगा कभी। और इसका श्रेय यदि जाता है किसी व्यक्ति को तो वह शख्स लालू यादव ही हैं। लालू यहाँ से व्यक्ति से ऊपर उठकर विचार बन चुके थे।
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