प्रत्येकाला मुस्लीम मतांची गरज आहे पण मुस्लिम मुद्द्यांची नाही
इस देश में मुसलामन अल्पसंख्यक के रूप में हैं. अभी तक मुस्लिम समाज से उनका कोई लीडर नहीं हुआ. आजादी के बाद मुसलमानों ने खुद के समाज का नेतृत्व करने के बजाए दुसरे धर्म के नेताओं पर ज्यादा भरोसा करते आएं हैं. यही वजह है कि आज तक राष्ट्रीय स्तर का कोई भी मुस्लिम लीडर नहीं हुआ. हाँ अपवाद के तौर पर पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद को आप राष्ट्रीय स्तर के मुस्लिम लीडर कह सकते हैं. लेकिन उनकी भी अपनी कोई पार्टी नहीं थी. कांग्रेस से ही चुनाव लड़ते थे. वहीं आजादी के बाद से मुसलमानों ने खुद का कोई संगठन बनाने या कोई मुस्लिम लीडर बनाने के बजाएं, पंडित जवाहर लाल नेहरु, इंदिरा गांधी, लाल बहादुर शास्त्री, कांशीराम, मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव को ही अपना लीडर माना है.
“हंस के मुसलमान” विशेषांक में प्रोफेसर अख्तरुल वासे ने लिखा है कि 1962 के बाद जब मौलाना आजाद, रफीक अहमद किदवई और डॉ महमूद नहीं रहे तो कांग्रेस और दुसरे राजनैतिक दलों ने ऐसे मुस्लिम नेताओं को शरण दी जिनमें न तो किसी प्रकार की अंतरात्मा थी और न ही उनके पास किसी प्रकार का राजनैतिक आधार. इसी अंक में प्रोफेसर वासे ने आगे लिखा है कि अब तो विभिन्न दलों को मुस्लिम लीडर के नाम पर तोता पालने की आदत हो गयी है. ये मियां मिठू उतना ही मुस्लिम पक्ष में बोलेंगे जीतना इनके पार्टी नेतृत्व का आदेश होगा. प्रोफेसर अख्तरुल वासे ने इसी अंक में लिखा है कि इस बात का श्रेय मुसलमानों को भी दिया जाना चाहिए. आजादी के बाद भी उन्होंने अपना संगठन या अपना लीडर नहीं बनाया.
अभी तक ऐसा ही होते आया है. किसी भी राजनैतिक दल ने कभी राष्ट्रीय स्तर का कोई मुस्लिम लीडर उभरने नहीं दिया. इसी का फायदा आज एमआईएम के सांसद असदुद्दीन ओवैसी उठा रहे हैं. दरअसल विभिन्न राजनैतिक पार्टियाँ ने मुसलमानों को लीडरशिप न देकर कुछ सुविधा और सहूलियत दान करते आ रहे थे. जो अब मुस्लिम समाज और ओवैसी भी भलीभांती समझ गए हैं. इसी का फायदा ओवैसी उठाना चाहते हैं.
गौर करने वाली बात ये है कि हर चुनाव में वोट बैंक के लिए मुसलमानों पर ही सब की निगाह जाती है. ये सिर्फ किसी एक राजनैतिक पार्टी पर लागू नहीं होता है. कॉंग्रेस, एसपी, बसपा, राजद या फिर और भी क्षेत्रीय पार्टी भी मुसलमानों के वोट बैंक पर ही नजर रखती है. जबकि लीडरशिप के नाम पर किसी तोते वाले मुस्लिम को पार्टी में शामिल कर लेती है. अभी तक इस देश में मुस्लिम लीडरशिप की कमी है, जिसे ओवैसी भरना चाहते हैं. इसकी वजह भी है. इन सात सालों में गौ-रक्षा के नाम पर, बीफ के नाम पर, धर्मपरिवर्तन के नाम पर हो, या फिर लव-जेहाद के नाम पर सबसे ज्यादा सताया और जेल में ठूसा गया मुलसमान ही है. अगर इन पुरे घटनाओं पर नजर दौड़ाएं तो एक दो पार्टी को छोड़ कर किसी ने भी खुल कर मुसलमानों के समर्थन में नहीं बोला और जो लोग बोले भी तो सिर्फ ट्विटर और फेसबुक पर बोल कर शांत हो गए. इसकी वजह भी है इन तमाम पार्टियों को अब डर लगने लगता है कि मुसलामनों के फेवर में बोलने से कहीं उनके जात का वोट ही न कट जाएं. एक महत्वपूर्ण घटना भी आप इस कड़ी में जोड़ सकते हैं उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर का दंगा. दंगाइयों को क्या सजा मिली सबको पता है. अब तो खबर ये भी है कि उत्तर प्रदेश के योगी सरकार में कई दंगाइयों के केस भी वापस ले लिए गए हैं.
खैर ये तो दंगा की घटना है. अब बात करते हैं गौ-रक्षा और बीफ के नाम पर मुसलमानों की भीड़ द्वारा हो रही हत्या पर. 2014 से ऐसी घटना खूब हो रही है. आप इन घटनाओं को अंजाम देने वालों की जाति-धर्म देख ले. एक भी सवर्ण हिन्दू नहीं मिलेगा. अब सवाल है कि इन क्षेत्रियों पार्टी को वोट यही पिछड़ा और मुसलमान देता है. आज वही पिछड़ा, मुसलामनों को गौ-रक्षा के नाम पर मार देते हैं. फिर ये बहुसख्यक पिछड़ो के लीडर ऐसे मुद्दे पर खुल कर क्यों नहीं बोलते. कम से कम अपने जाति के लोगों को ही समझा देते की इस तरह से मुसलामनों की हत्या करना सही नहीं है. लेकिन ऐसी घटनाओं पर भी सभी ने चुप्पी तान ली है. ऐसा लग रहा है कि मुसलामनों के वोट लेने वाले ये दल इतना डरे हुए हैं कि अगर मुसलमानों के साथ खुल कर खड़ा होंगे तो इनके धर्म जाति के लोग ही इन्हें वोट देना बंद कर देंगे. वैसे सच्चाई तो ये हैं कि अब इनके कोर वोटर यानी इनके जाति के वोटर भी इन्हें वोट नहीं देते. 2014 का लोकसभा चुनाव के नतीजे देख लीजिए, या 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव हो या फिर 2019 का लोकसभा चुनाव हो. बीजेपी ने प्रचंड बहुमत के साथ केंद्र और उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार बनाई है. यही नहीं दो दिन पहले उत्तर प्रदेश के पंचायत अध्यक्ष का ही चुनाव देख लीजिए. 75 में से 67 सीटों पर अध्यक्ष पद पर बीजेपी ने कब्ज़ा किया है. ये कैसे हो गया आप मुझसे बेहतर जानते होंगे. हो सकता है कि आपसे बेहतर गैरभाजपा पार्टी के नेता भी जानते होंगे.
अब आते हैं असल मुद्दे पर लोकतंत्र में सभी को चुनाव लड़ने और अपनी पार्टी बनाने का अधिकार है. फिर ओवैसी के लड़ने से सभी को दिक्कत क्यों हो रही है. इस देश में अल्पसंख्यक के रूप में मुसलमान है और सभी पार्टियों को उसके वोट की ही चिंता हैं. जबकि उन्हें अपने जाति के वोटर की चिंता करनी चाहिए. शुरू से तो मुसलमानों को नेतृत्वविहीन करके एक ही बात का डर दिखाया जाता था हमें वोट करो नहीं तो बीजेपी आ जाएगी और इसी डर से मुलसमान एकतरफा बाकि पार्टियों को वोट देते आएं. आज ओवैसी के लड़ने से भी इन्हें दिक्कत है. जबकि लोकतंत्र में चुनाव लड़ने की आजादी सभी को है. जबकि यहाँ तो मुस्लिम अल्पसंख्यक है. ज्यादा से ज्यादा 20 प्रतिशत आबादी होगी मुसलमानों की.
अगर बाकि पार्टियों ने शुरू से ही मुसलमानों में एक सही लीडरशिप पैदा करती तो आज उसे न बीजेपी से डरने की जरूरत होती और न ओवैसी से.
लेखक नुरुल होदा एक स्वतंत्र पत्रकार है
मौलाना आझाद आणि त्यांच्या पुण्यतिथीनिमित्त त्यांचे स्मरण
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