माणुसकीच्या कल्पना विरुद्ध मानव तयार
घेतलेल्या: अनिल चमडीया
समाजाचा एक सदस्य म्हणून समानतेची निवड माणसासाठी स्वाभाविक आहे. पण भांडवलशाहीने माणसाला स्वत:साठी अशा प्रकारे तयार केले आहे की तो अधिकाधिक पैसा मिळवण्यासाठी भुकेलेला राहतो, पण शेवटी हेही त्याला कळत नाही., त्याचा जास्त पैसा काय उपयोग? तो पैसा माणुसकीच्या किंमतीवर मिळवण्यासाठी तो सतत स्पर्धा करत असतो.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ही माणूस घडवणारी संघटना आहे : मोहन भागवत' - सर्वोच्च न्यायालयाने अयोध्येत बाबरी मशिदीच्या जागेवर राम मंदिर बांधण्याचा निर्णय दिल्यानंतर पत्रकारांना उत्तर देताना मोहन भागवत यांनी ही माहिती दिली. याच्या काही महिन्यांपूर्वी मी एका दुर्गम भागातील एका तरुणाला भेटलो जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघाशी संबंधित आहे. त्याला लोकांची गरज कशी आहे हे त्याने सांगितले, आणि असे लोक कसे तयार होतात. एक, ते म्हणाले की, आम्हाला समजते की संसदीय निवडणुकीत बहुमत मिळवायचे आहे. पाच मतांनी असो वा पाचशे मतांनी. त्यांना लाख-हजार मतांनी निवडणूक जिंकायची आहे, हे आमच्या ध्यानात नाही. दुसरे म्हणजे, त्यांनी सांगितले की त्यांचे लक्ष्य हे आहे की त्यांना निवडणुकीत जिंकू शकतील अशा अनेक समर्थकांवर दबाव आणणे. त्यांनी सांगितलेला तिसरा मुद्दा या अभ्यासात केंद्रस्थानी आहे. त्याचे समर्थक, त्यांना कशाचीही पर्वा नाही.
तुम्हाला भ्रष्टाचारावर बोलायचे आहे का?, तुम्हाला रोजगाराबद्दल बोलायला आवडेल का? , त्यांच्या घरातील बेरोजगारीची परिस्थितीही सांगा, महागाईबद्दल बोला, मॉब लिंचिंगबद्दल बोला, शेतकरी आत्महत्यांबद्दल बोला, देशातील बँका बुडवल्याबद्दल बोला, भांडवलदारांच्या हातात राष्ट्रीय संपत्ती विकल्याबद्दल बोला किंवा शैक्षणिक संस्थांच्या बिकट स्थितीची आकडेवारी सादर करा, म्हणजे कोणाला चित्र मांडून त्यांना त्यांच्या राजकीय स्थितीतून हलवायचे आहे., ते अजिबात ऐकायला तयार नसतील. तेथे सैनिक समाजापासून अलिप्त राहावेत म्हणून इंग्रजांनी लष्करी छावण्या बांधल्या जेणेकरून समाजाच्या प्रश्नांचा सैनिकांवर परिणाम होऊ नये. ब्रिटिश भांडवलशाही साम्राज्यवादाने जगभर आपल्या वसाहती स्थापन केल्या होत्या. जे देश साम्राज्यवादाखाली होते, त्या देशांतील लोक स्वतःला गुलाम समजत. भारतातील लोकांच्या गुलामगिरीच्या परिस्थितीचा त्या सैनिकांवर काहीही परिणाम झाला नाही, जिन्हें भारत के लोगों के खिलाफ दमन के लिए लगाया जाता था। गोलियां चलवाने के लिए भारत के लोगों को सैनिक के रूप में तैयार किया जाता था। मनुष्य समाज का सदस्य होता है।
मनुष्य को राष्ट्र नागरिक के रूप में तैयार करता है। इस मनुष्य को राष्ट्र के भीतर भी अपने अपने हितों के अनुकूल तैयार करने की प्रक्रिया चलती रही है। जैसे अंग्रेज इसी राष्ट्र के भीतर अपने हितों के अनुकूल मनुष्य तैयार कर रहे थे। मैकॉले कहता था कि उसे काले भारतीय चाहिए जो अंग्रेजों की तरह सोचें। मनुवाद ने अपने लिए उन मनुष्यों को तैयार किया जिन्हें उसने मनुष्य न होने का दरजा दिया। मैं एक विविद्यालय स्तर के छात्रों की कक्षा में पढ़ा रहा था तो मैंने उनसे पूछा कि आप कैसा समाज चाहते हैं। उनके सामने दो तरह के विकल्प रखे गए। एक विकल्प समाज के सभी लोगों के बराबरी के स्तर पर रहने का था। कक्षा में उपस्थित सभी छात्रों ने अपने हाथ खड़े कर दिए। दूसरा विकल्प था कि छात्रों में कितने हैं, जो ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना चाहते हैं। इस विकल्प के जवाब में भी सभी ने अपने हाथ खड़े कर दिए। दोनों विकल्प एक दूसरे के समानांतर हैं। लेकिन छात्रों को दोनों विकल्प अच्छे लग रहे हैं। कैसा विरोधाभास है। समाज के एक सदस्य के रूप में मनुष्य के लिए बराबरी का विकल्प स्वभाविक होता है। लेकिन पूंजीवाद ने मनुष्य को अपने लिए इस तरह से तैयार किया है कि उसे ज्यादा से ज्यादा पैसे कमाने की भूख बनी रहे लेकिन उसके सामने यह भी स्पष्ट नहीं हो कि आखिरकार, ज्यादा से ज्यादा पैसा उसके किस काम का है। वह मनुष्यता की कीमत पर उस पैसे को हासिल करने की होड़ में लगा रहता है। छात्रों की उलझन समझ में आ सकती है कि वे युवा हैं, और उनमें मनुष्यता का भाव हावी है। मनुष्य बनाने की परियोजना का लक्ष्य क्या है। स्पष्ट होना जरूरी हैं। एक दूसरे से ऊपर दिखने का लक्ष्य मनुष्यता के लक्षण नहीं हैं।
शेवटी, क्रूरता शब्द की उत्पति कैसे हुई होगी। बलपूर्वक एक दूसरे के ऊपर शासन करने के विचार से ही इसकी उत्पति हुई है, और क्रूरता को मनुष्यता के विरोधी भाव के रूप में स्वीकार किया गया है। अंग्रेजों ने बलपूर्वक शासन किया और अपने उपनिवेशों में वहीं के मनुष्यों को बलपूर्वक शासन का हिस्सा होने को तैयार किया।मनुष्य के भीतर बलपूर्वक अधीनता स्वीकार करवा लेने का विचार मानवीय प्रक्रिया के निषेध से जन्मा है।
यह ऐसा विचार है जो कि मानवीय सभ्यता ने अपने विकास के क्रम में जिन प्रक्रियाओं को मनुष्यता का आविष्कार माना है, उन्हें वह स्वीकार नहीं करता है। तर्क, विमशर्, संवाद, मेलजोल, सामाजिकता, भेदभाव का विरोध, बराबरी आदि मनुष्यता की खोज है। इन्हीं आविष्कारों के खिलाफ तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व्यवस्था में बलपूर्वक विचारों के वाहक अपने हितों के लिए मनुष्य को तैयार करने की परियोजना में लगे रहते हैं। वह मनुष्य तर्क, चर्चा, संवाद, मेलजोल, सामाजिकता, भेदभाव का विरोध, बराबरी कुछ नहीं सुनना चाहता है क्योंकि वह उस परियोजना के तहत तैयार हुआ है, जहां उसके कानों में या तो रांगा पिघला कर डाल दिया गया है, या फिर उसका अंगूठा काट लिया गया है। मैं आईआईएमसी में पढ़ा रहा था तो मुझे पहले साल दो ऐसे छात्र मिले जो कक्षा में सवाल-जवाब, बहस, विमर्श के साथ खड़े हो जाते थे। लेकिन जैसे ही कक्षा समाप्त होती थी, वे उन्हीं सवालों को लेकर खड़े हो जाते थे जिनके खिलाफ विमर्श और बहस ने एक तर्क पद्धति विकसित की है। पूरी कक्षा परेशान हो जाती थी। लेकिन सबसे बड़ी त्रासदी तो यह थी कि वे दोनों छात्र भी परेशान हो जाते थे। वे कक्षा के छात्रों से नहीं, बल्कि अपने आप से परेशान हो जाते थे। वे यह महसूस करते थे कि कक्षा में जो बहस, विमर्श हुआ वह मनुष्यता के अनुकूल है, लेकिन वह अपने भीतर ठूंसे गए सवालों से भी इस तरह बंधे थे कि उससे बाहर निकलने की उन्हें गुंजाइश ही नहीं दिखती थी। वे मुझसे बार-बार कहते थे कि हम इस स्थिति से निकलने की चाहत रखते हैं,लेकिन पता नहीं क्यों निकल नहीं पाते हैं। इस तरह की त्रासदपूर्ण स्थिति के लिए उन युवा मनुष्य को किसने तैयार किया है।
~~लेखक- अनिल चमड़िया~~
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