Home State Bihar & Jharkhand बीएन मंडल: समाजवादी सियासत का यशस्वी चेहरा

बीएन मंडल: समाजवादी सियासत का यशस्वी चेहरा

बकौल जेम्स फ्रीमैन क्लार्क, “A politician thinks of the next election. A statesman, of the next generation”. अर्थात्, एक राजनीतिज्ञ अगले चुनाव के बारे में सोचता है, पर एक दूरदर्शी राजनेता अगली पीढ़ी के बारे में। भूपेन्द्र नारायण मंडल ऐसी ही समृद्ध सोच के एक विवेकवान राजनेता का नाम है। जाति नहीं जमात की राजनीति के पुरोधा, बिहार में सोशलिस्टों की पहली पीढ़ी के विधायक (1957), 1962 में बिहार के सहरसा से चुनकर लोकसभा पहुंचने वाले प्रखर सांसद व सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष (1959) रहे बी. एन. मंडल (1 फरवरी 1904-29 मई 1975) की आज 43वीं पुण्यतिथि है। कुनबापरस्त व कॉरपोरेटी राजनीति एवं अनसोशल सोशलिस्ट्स (असमाजिक समाजवादियों) की लगातार बढ़ती तादाद के दौर में नैतिकता से संचालित मूल्यपरक राजनीति की ज़रूरत आज हमें हर मोड़ पर महसूस हो रही है। आज की व्यक्तिवादी राजनीति, जहां दल और नेता प्रायः एक-दूसरे के पर्याय हो गए हैं; बी.एन. मंडल द्वारा राज्यसभा में 1969 में दिया गया भाषण बरबस याद आता है:

जनतंत्र में अगर कोई पार्टी या व्यक्ति यह समझे कि वह ही जब तक शासन में रहेगा, तब तक संसार में उजाला रहेगा, वह गया तो सारे संसार में अंधेरा हो जाएगा, इस ढंग की मनोवृत्ति रखने वाला, चाहे कोई व्यक्ति हो या पार्टी, वह देश को रसातल में पहुंचाएगा। हिंदुस्तान में (सत्ता से) चिपके रहने की एक आदत पड़ गयी है, मनोवृत्ति बन गई है। उसी ने देश के वातावरण को विषाक्त कर दिया है।

जब 1957 में सोशलिस्ट पार्टी के इकलौते विधायक के रूप में बीएन मंडल विधानसभा पहुंचे, तो आर्यावर्त ने फ्रंट पेज पर एक कार्टून छापा, जिसमें एक बड़ा अंडा दिखाते हुए अख़बार ने लिखा कि सोशलिस्ट पार्टी ने एक अंडा दिया है।

लोहिया के बेहद क़रीबी रहे भूपेन्द्र बाबू की रुचि कभी सत्ता-समीकरण साधने में नहीं रही, बल्कि सामाजिक न्याय के लिए जनांदोलन खड़ा करने में उनकी दिलचस्पी रही। आज के पोस्टरब्वॉय पॉलिटिक्स के लोकप्रियतावादी चलन व रातोरात नेता बनकर भारतीय राजनीति के क्षितिज पर छा जाने के उतावलेपन के समय में बीएन मंडल का जीवनवृत्त इस बात की ताकीद करता है कि उनमें बुद्ध की करुणा, लोहिया के कर्म व उसूल की कठोरता एवं कबीर का फक्कड़पन था। चुनावी तंत्र की शुचिता व जनहित में नेताओं की मितव्ययिता पर ज़ोर देते हुए चुनाव के दौरान वे बैलगाड़ी से क्षेत्र भ्रमण करते थे जो सिलसिला जीवनपर्यंत चला। हर दौर में चुनाव लड़ने के लिए पैसे की ज़रूरत पड़ती रही है। पर, संचय-संग्रह की प्रवृत्ति, दिखावे और फिज़ूलखर्ची की प्रकृति न हो, तो कम पैसे में भी चुनाव लड़ा और जीता जा सकता है। इसके लिए नेता का अंदर-बाहर एक होना ज़रूरी है। तभी वह अपने कार्यकर्ताओं को भी मितव्ययिता के लिए तैयार कर पाएगा।

1952 के पहले विधानसभा चुनाव में बी. एन. मंडल कांग्रेस उम्मीदवार व संबंध में भाई लगने वाले बी.पी. मंडल (जो बाद में मंडल कमीशन के चेयरमैन बने) से मधेपुरा सीट से 666 मतों के मामूली अंतर से चुनाव हार गए थे। पर, अगले चुनाव में उन्होंने बी पी मंडल को हरा दिया। 1962 के लोकसभा चुनाव में सहरसा सीट से कांग्रेस के ललित नारायण मिश्रा को शिक़स्त देकर उन्होंने जीत हासिल की, पर 1964 में वह चुनाव रद्द कर दिया गया। उपचुनाव में भी उन्होंने जीत हासिल कर ली थी, ऑल इंडिया रेडियो पर विजयी उम्मीदवारों की सूची में उनके नाम की घोषणा भी हो गई, भूपेन्द्र बाबू अपने समर्थकों के साथ विजय जुलूस के लिए निकल चुके थे। पर नाटकीय तरीक़े से दिल्ली के एक इशारे पर रिकाउंटिंग में गड़बड़ी कर मतगणना हॉल से उनकी हार की घोषणा कर दी गई। तब तक भूपेंद्र बाबू के कोई समर्थक वहां नहीं बचे थे। अफ़सरशाही के इस घिनौने रवैये से वे बहुत आहत थे। लोहिया जी भूपेंद्र बाबू के लिए कई बार कैंपेन कर चुके थे। राज नारायण तो क्षेत्र में डेरा ही डाले हुए थे, उन्हें जब ये बात पता चली, तो वे अपने चिरपरिचित अंदाज़ में डीएम पर बरस पड़े, और कहा, “मन तो ऐसा होता है कि आपको खींच के सीधे…”

वे दो बार राज्यसभा (1966 और 1972) के लिए चुने गए। उन्होंने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (चुनाव चिह्न – झोपड़ी छाप), बिहार प्रांत के संस्थापक सचिव व चीफ ऑर्गेनाइजर (1954-55), सोशलिस्ट पार्टी (चुनाव चिह्न – बरगद छाप), बिहार के अध्यक्ष (1955), सोशलिस्ट पार्टी ऑव इंडिया के अध्यक्ष (1959 एवं 1972) एवं संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) के पार्लियामेंट्री बोर्ड के अध्यक्ष (1967) की भूमिका बख़ूबी निभाई। स्वतंत्रता के पहले 1930 में वे त्रिवेणी संघ से जुड़े, टीएनजे (अब टीएनबी) कॉलिज, भागलपुर से इंटरमीडिएट व ग्रैजुएशन करने के बाद पटना वि.वि. से वकालत की पढ़ाई की। 13 अगस्त 42 को मधेपुरा कचहरी पर युनियन जैक उतारकर हिंदुस्तान का राष्ट्रीय झंडा फहराने वाले जांबाज लोगों का नेतृत्व किया। वकालत का लाइसेंस जलाकर अपने 12 वर्ष के पेशे को हमेशा के लिए छोड़कर “भारत छोड़ो आंदोलन” में कूद पड़े। स्वाधीनता के पूर्व 2 बार और आज़ादी के बाद 4 बार जेल गए। टीपी कॉलिज, मधेपुरा की स्थापना में अहम रोल अदा किया।

कांग्रेस प्रगतिशील गुट के नेताओं ने एक सोशलिस्ट ग्रुप का गठन किया, जिसमें जेपी, अच्युत पटवर्द्धन, युसुफ़ मेहर अली, नरेंद्र देव, लोहिया, आदि थे। यह गुट कांग्रेस पार्टी से 1948 में अलग हो गया। 1954 में जेपी के सक्रिय सियासत से संन्यास लेने और पहले आमचुनाव के कुछ वर्षों बाद जब सोशलिस्ट पार्टी दो धड़ों–प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी में बंटी, तो लोहिया के नेतृत्व वाली सोशलिस्ट पार्टी में मधु लिमये, मामा बालेश्वर दयाल, बद्री विशाल पित्ति, पी.वी. राजू, जॉर्ज फर्णांडिस, इन्दुमति केलकर, रामसेवक यादव, राजनारायण, मृणाल गोड़े, सरस्वती अम्बले, मनीराम बागड़ी व भूपेन्द्र नारायण मंडल जैसे नेता थे। बिहार इकाई में भूपेंद्र बाबू के नेतृत्व में अक्षयवट राय, सीताराम सिंह, बाबूलाल शास्त्री, तुलसीदास मेहता, पूरनचंद, उपेन्द्रनारायण वर्मा, भोला सिंह, श्रीकृष्ण सिंह, अवधेश मिश्र, बिहार लेनिन जगदेव प्रसाद, रामानन्द तिवारी, रामइक़बाल वरसी, सच्चिदानंद सिंह, जितेन्द्र यादव, आदि थे।

सोशलिस्ट पार्टी के चेयरमैन की हैसियत से चिनमलई, मद्रास में आयोजित चौथे वार्षिक सम्मेलन (29-31 दिसंबर 1959) में उनके द्वारा दिया गया भाषण क़ाबिले-ज़िक्र है, जिसमें उन्होंने वैश्विक हलचलों, साम्यवाद की स्थिति, देश के सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक-सांस्कृतिक हालात पर विशद चर्चा की:

“विनोबा का गांधीवाद अधूरा, अमीरों का पक्षधर और ग़रीबों के लिए घातक है। विनोबा ने भूदान आंदोलन के द्वारा पूंजीवाद की टूटती हुई कड़ियों को जोड़ने में अभूतपूर्व सफलता पाई है। यहां यह याद रखना स्वाभाविक है कि सर्वोदयी धारा में जेपी जैसे समाजवादी नेता भी बह गए थे”।

मधेपुरा के रानीपट्टी गांव के एक ज़मींदार परिवार में जन्मे बी एन मंडल इस बात को समझ चुके थे कि आर्थिक समृद्धि सामाजिक स्वीकृति की गारंटी नहीं है। त्रिवेणी संघ से वे जुड़े ज़रूर, पर उन्हें भान हुआ कि जब मध्यम जातियों का यह हाल है, तो फिर सामाजिक संरचना में अन्य जातियों के साथ हो रहे शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति कैसे मिले। इसलिए, उन्होंने पेरियार ई वी रामास्वामी के नेतृत्व वाली जस्टिस पार्टी से जुड़ने का निर्णय लिया। वे राजनीति के साथ-साथ सामाजिक-सांस्कृति फ्रंट पर अस्पृश्यता को दूर करने के लिए गांव-गांव जाकर पेरियार रामास्वामी नायकर की चिंतन धारा के प्रसार में लग गए। शंभु सुमन बताते हैं कि अपने दलित गाड़ीवान के साथ कहीं पीड़ाजनक व्यवहार पर वे भूखे लौट आते थे। पटना विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष शरदेंदु कुमार अपनी किताब–समाजवादी चिंतन के अमर साधक: भूपेन्द्र नारायण मंडल में ज़िक्र करते हैं कि ज़मींदारी प्रथा और बटाईदारों की बेदखली के ख़िलाफ़ भी इन्होंने कई आंदोलन चलाए। 1952 के पहले आम चुनाव में उनकी पार्टी को कोई बहुत बड़ी सफलता नहीं मिली, पर भागलपुर-दरभंगा सुरक्षित क्षेत्र से किराय मुसहर को जिताकर लोकसभा पहुँचाने में उन्होंने महती भूमिका निभाई।

संसदीय लोकतंत्र के हिमायती व सादगी भरा सार्वजनिक जीवन जीने वाले भूपेंद्र बाबू को लोहिया जी ख़ासे पसंद इसलिए करते थे कि उनके निजी जीवन का आचरण भी गरिमा की किरणों से आलोकित था। 1966 में जब लोहिया ने गैर-कांग्रेसवाद का नारा दिया था, तो बी.एन. मंडल जैसे लोग जी-जान से जुट गए। 1962 में संसोपा से केवल 7 विधायक चुनकर आए थे। वहीं 1967 के चुनाव में संसोपा के 70 विधायक चुने गए। पर, 67 में जब पहली बार 9 राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ, तो उस वक़्त बी.एन. मंडल के पास कैबिनेट मंत्री और कुछ नेता मुख्यमंत्री पद का प्रस्ताव लेकर आए। पर, उन्होंने यह कहकर ठुकरा दिया कि वे राज्यसभा के सांसद हैं। जिन्हें जिस सदन के लिए चुना गया है, उन्हें वहीं रहकर जनता के सवाल उठाने चाहिए। जो व्यक्ति सदन का सदस्य नहीं है, वो सदन का नेता कैसे हो सकता है ?

बिहार विधान परिषद के पूर्व उपाध्यक्ष गजेन्द्र प्रसाद हिमांशु भूपेंद्र बाबू के हवाले से कहते हैं कि संविधान में इस बारे में मत बहुत स्पष्ट नहीं है। विशुद्ध राजनीति के लिए संविधान की त्रुटि का लाभ व्यक्ति या जनप्रतिनिधि को नहीं उठाना चाहिए। 67 में बी. पी. मंडल भी संसोपा से से सांसद थे। महामाया प्रसाद की सरकार, जिसमें कर्पूरी जी उपमुख्यमंत्री बनाए गए थे; में बी पी मंडल लोहिया की अनिच्छा के बावजूद कैबिनेट मंत्री बन गए। पर, 6 महीने बाद श्री मंडल का विधान सभा या विधान परिषद पहुंचना ज़रूरी था। पर, लोहिया ने उन्हें एमएलसी नहीं बनने दिया। बस, ठीकठाक चल रही महामाया सरकार को दलबदल के माध्यम से बीपी मंडल औऱ संसोपा विधायक जगदेव प्रसाद ने अपदस्थ करने में अपनी ऊर्जा लगा दी।

वैज्ञानिक समाजवाद की सूक्ष्म समझ रखने व सार समझने वाले भूपेन्द्र बाबू बड़ी दुकानों की बजाय छोटी दुकानों से सामान ख़रीदते थे, ढाबों पर खाते थे। कहते थे कि ग़रीबों की दुकान में खाने-पीने या ख़रीदने से उनकी रोज़ी-रोटी चलती है, उनके परिवार का पालन-पोषण होता है, वहीं बड़ी दुकानों से ख़रीदारी करने से पूंजीपतियों का लाभ होता है। आज़ादी के बाद देश और राज्य के सर्किट हाउसों में जनप्रतिनिधियों को ठहरने की इजाज़त नहीं थी। नियम था कि वहां सिर्फ़ सरकारी अफ़सरान ही रुकेंगे। भूपेंद्र बाबू अपने समर्थकों और सत्याग्रहियों को लेकर औपनिवेशिक मानसिकता पर चोट करने सर्किट हाउस घुस गए जहां उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। जब तक सरकार ने क़ानून बनाकर सर्किट हाउस का दरवाज़ा जनप्रतिनिधियों व जनता के लिए नहीं खोला, वे नौ महीने तक जेल में बंद रहे।

गांधी जी स्वराज के माध्यम से जनता को सत्ता के नियमन और नियंत्रण की अपनी क्षमता के विकास की सीख देते थे। वस्तुतः स्वराज का माने ही सरकार के नियंत्रण से मुक्त होने का सतत प्रयत्न है। भूपेंद्र बाबू अपनी जनता में इसी नैतिक बल के संपोषक के रूप में काम कर रहे थे। एक दफे हैदराबाद के पार्टी सम्मेलन में अर्थाभाव के चलते क्षेत्रीय व ज़िला कार्यालय बंद कर सिर्फ़ प्रांतीय व केंद्रीय कार्यालय चलाने का प्रस्ताव आया, जिस पर लोहिया जी भी राज़ी हो गए। मगर, जमीनजीवी भूपेंद्र बाबू ने कहा कि कार्यकर्ताओं, जनता और नेताओं के बीच योजक कड़ी का काम करते हैं हमारे क्षेत्रीय व ज़िला कार्यालय, इसलिए उन्हें बंद करना ठीक नहीं होगा। हां, अर्थ जुटाने का काम में हमलोग नैतिकता व तन्मयता से लगें।

1969 में उन्होंने राज्यसभा में बड़े आक्रोश के साथ चौथे आमचुनाव में एक अनुसूचित जाति के वोटर का हाथ काट दिये जाने का मामला उठाया। 1972 में राज्यसभा में स्वतंत्रता के 25 साल पूरे होने पर बोलते हुए कहा, “अभी स्वतंत्रता की रजत जयंती हमलोग मना चुके हैं। उसके बाद भी यह स्थिति दलितों की है। इसका कारण यह है कि आज भी हिंदुस्तान में उच्च जातिवाद की जो शक्ति है, जिसको प्रतिक्रियावादी शक्ति भी कहते हैं, उसका इतना प्रभुत्व है जिससे न प्रशासन ठीक से चल रहा है, न सामाजिक स्थिति को उठाने का जो प्रयत्न है, वह सफल हो रहा है। सबकी जड़ में वही है और इसीलिए उसके सुधार की ज़रूरत है”।

विशेष अवसर के सिद्धांत की वकालत करते हुए गुणात्मक ह्रास का कुतर्क देने वाले को 20 नवंबर 73 को बी एन मंडल ने राज्यसभा में करारा जवाब दिया था, “एक बार एक आदमी ने हमसे पूछा कि आप बहुत जातिनीति की बात करते हैं। आप यह भी कहते हैं कि अगर आप अयोग्य आदमी को लाएंगे तो उसको बहुत बड़ी जगह पर लगा दिया जाएगा प्रशासन में, और अगर ऐसा किया जाएगा, तो आज के प्रशासन का क्या होगा ? … हमने कहा कि आज जो बड़ी नौकरी की जगह है, उसमें भर्ती करने की क्या प्रणाली है, तो उन्होंने कहा कि जो इंडियन सर्विस कमीशन है और पब्लिक सर्विस कमीशन है, उसके जरिए होती है। हमने कहा कि जब इस देश के बेस्ट ब्रेन को लेकर हिंदुस्तान का कामकाज चलाया जाता है तो इस प्रशासन से क्यों आप संतुष्ट नहीं हैं ? तब वे चुप हो गए, तो हमने कहा कि यहीं पर हमारी जाति नीति आती है”।

2 सितंबर 1963 को लोकसभा में विकास और सौंदर्यीकरण के नाम पर झुग्गियों और बस्तियों को उजाड़ने का विरोध करते हुए सरकार की आर्थिक, औद्योगिक और कृषि नीतियों की बखिया उधेड़ते हुए वे कहते हैं, “शुरू ज़माने से इस हिंदुस्तान और संसार के दूसरे भागों में अमीर और ग़रीब वर्ग के बीच जो लड़ाई थी, उसे यह सरकार अब भी क़ायम रखना चाहती है। … हिन्दुस्तान में जो जीवन-संघर्ष चल रहा है, उसमें ग़रीबों को मिटाया जा रहा है, लेकिन सीधे तलवार के घाट न उतारकर उनको घुला-घुलाकर मारा जाता है”।

इन जनोन्मुख बुनियादी सवालों को वो लगातार सदन में उठाते रहे। 25 जुलाई 68 को जब ग्रेटर दिल्ली प्लान के लिए रिपब्लिक प्रिमिसेज एक्ट में संशोधन के लिए विधेयक पेश किया गया, तो उन्होंने पुरज़ोर विरोध दर्ज किया, “…इसके ज़रिए जो यहां के छोटे-छोटे लोग हैं जो दूर-दूर देहात से यहां आते हैं, औऱ यहां पर आकर अपनी कमाई का जो इंतज़ाम वह करते हैं, उसके लिए उन्हें दिल्ली में रहना पड़ता है, वे झुग्गी-झोपड़ी बनाकर रहते हैं, उन लोगों को उजाड़ने के लिए इसमें पावर देने का इंतजाम है, इसलिए मैं इसका विरोध करता हूं”।

पिछले वर्ष विनाशकारी युजीसी ग़ज़ट का हवाला देकर विश्वविद्यालयों में भारी सीट कट का फरमान सुनाया गया। तत्कालीन शिक्षा मंत्री अर्जुन सिंह के सद्प्रयास से अभी उच्च शैक्षणिक संस्थानों में पिछड़ों के दाखिले के लिए लागू हुए आरक्षण को बमुश्किल दस साल हुए हैं। और, इस साल 62 संस्थानों को ‘स्वायत्त’ घोषित कर उन्हें आर्थिक रूप से पंगु और कमज़ोर वर्गों के लिए शोषणकारी बना दिया गया। यह धीरे-धीरे संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था को निजी हाथों में सौंप देने की साज़िश है। प्रफ़ेसर्स की बहाली के लिए जो पहले 200 प्वाइंट्स रोस्टर सिस्टम लागू था, उसे 13 प्वाइंट्स रोस्टर सिस्टम में तब्दील कर दिया गया। विश्वविद्यालय को इकाई न मान कर विभाग को इकाई माना जा रहा है और इस तरह हर वो तरीक़े ईजाद किये जा रहे हैं जिससे आरक्षण लागू न होने पाए जबकि संविधान की मूल भावना यह है कि हर वो तरीक़ा अपनाना है, ढूंढना है जिससे अफ़र्मेटिव एक्शन लागू किया जा सके। अब कगर किसी विभाग में एक साथ 7 लोगों की बहाली न हो तो दलित का नंबर ही नहीं आएगा, 14 पोस्ट एडवर्टाइज़ न हो तो आदिवासी की बारी ही नहीं आएगी। यानी एक तरह से इंडियन एज्युकेशन सिस्टम का कंप्लीट गलगोटियाइज़ेशन, लवलियाइज़ेशन, अशोकाइजेशन, अमिटियाइज़ेशन और नाडराइजेशन हो गया है।

ऐसे में 26 नवंबर 69 को रा.स. में दिया गया भूपेंद्र बाबू का वक्तव्य याद आना लाज़मी है, “आज यह कहा जाता है कि विश्वविद्यालयों में जाने से साधारण छात्रों को रोकना चाहिए, अधिक संख्या में उनको नहीं जाने देना चाहिए। तो मेरा यह निश्चित मत है कि सरकार के या किसी भी आदमी के दिमाग़ में अगर यह हो कि देश के साधारण लड़कों को उच्च शिक्षा में जाने से रोका जाए, क्योंकि वह मेधावी नहीं है तो इस देश के लिए बहुत अनर्तकारी सिद्ध होगा, क्योंकि यह ऐसा देश है जिसका एक बहुत बड़ा वर्ग हज़ारों वर्षों से गुलामी में रह चुका है। साधारण स्तर का रहने पर भी वि.वि. जाने से उनको नहीं रोकना चाहिए। … जी हां, उनको पढ़ने का मौक़ा मिले। उनको काम नहीं तो कम-से-कम पढ़ा कर तो छोड़ दीजिए, फिर चाहे वह सरकार को उलटकर या किसी भी तरह से जो कोई उपाय होगा, वह करेंगे। लेकिन, पढ़ने से किसी को नहीं रोकिए”।

पैरवीतंत्र पर हमला करते हुए उन्होंने 26 नवंबर 69 को कहा था, “बिहार में विश्वविद्यालय सेवा आयोग भी क़ायम हुआ है। मेरा कहना है कि इसमें बेकार का खर्च क्यों करते हो। वह सब करने की कोई ज़रूरत नहीं है। … वह सेवा आयोग तो तिकड़मबाजी का अखाड़ा हो जाता है। उससे कोई योग्यता के आधार पर बहाली होती हो, ऐसी बात नहीं है। जिनकी पहुंच हो जाती है औऱ जो बड़े पैसे वाले लोग हैं, उनकी ज़ल्दी पहुंच हो जाती है और जो छोटी जाति के लोग हैं, उनकी सिफ़ारिश करने वाला कोई नहीं रहता है”।

नुमाइंदगी के मसले पर बोलते हुए 8 अप्रैल 69 को उन्होंने कहा, “हमारा संविधान कहता है कि लोकतांत्रिक ढंग से यहां की सरकार चलेगी। जो बालिग मताधिकार है, उसके आधार पर चुनाव होगा। बालिग मताधिकार के आधार पर संसद को बनाने और जनतंत्र को चलाने की बात है, उसके क्रियान्वयन के लिए यह जनप्रतिनिधित्व क़ानून बना है। लेकिन अब तक जो अनुभव हुआ है, उसके आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इस देश की जनसंख्या की जो बनावट है चाहे जाति, धर्म, अर्थ या अन्य समुदाय है…उनका सरकार में या सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व होना चाहिए, वह अब तक नहींहो पाया है। इसलिए, हिंदुस्तान का जनतंत्र ठीक से नहीं चल रहा है”।

20 मार्च 73 को जनतंत्र के विघटन पर बोलते हुए वो कहते हैं, “…आज केंद्र-राज्य संबंध में कोई मर्यादा नहीं रह गई है। राज्य में जो कांग्रेस का गुट है, उसका मुखिया कौन होगा, वहां की सरकार का मुखिया कौन होगा, इन सारी चीज़ों का संचालन यहां से होता है और मैं समझता हूं कि यह जनतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। जो सीमा रेखा है राज्य और केंद्र के बीच, उसमें किसी को दखल नहीं देना चाहिए। … हमारे समाज में जाति-पाति का अंतर्विरोध पहले से चला आ रहा था, बड़ी जाति और छोटी जाति का, अब यह सिमटकर एक जाति में चला गया है, और सारी ताक़त एक ही जाति के हाथ में जा रही है। … अभी जैसे कि केंद्र की बनावट है, उसमें राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, रेलमंत्री, भारी उद्योग मंत्री, एक ही जाति के हैं।

…इसी तरह राज्य के मुख्यमंत्री देखिए – श्री कमलापति त्रिपाठी, केदार पांडेय, घनश्याम ओझा, नन्दिनी सत्पथी, परमार, नरसिंह राव, ये सब एक ही जाति के हैं। इस सबका नतीजा आज यह होता है कि जिस ब्राह्मणवाद की वजह से यहां की हर जगह दूषित हो गयी है और आज जो पिछड़े, आदिवासी, दलित या छोटी जाति के लोग हैं, जो अंग्रेज़ों के आख़िरी ज़माने में और उनके जाने के बाद कुछ-कुछ आराम महसूस कर रहे थे, उनको इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री होने के बाद से ऐसा मालूम पड़ता है कि जैसे ब्राह्मणवाद की जंजीर को फिर से खींचकर उसको टाइट किया जा रहा है”।

कहना गलत न होगा कि हालात आज भी कोई बहुत नहीं सुधरे हैं। आर्थिक विषमता, राष्ट्रीय एकता और अखंडता पर बोलते हुए 25 अगस्त 69 को उन्होंने कहा था, “अगर देश में राष्ट्रीय एकता यह सरकार लाना चाहती है तो इस सरकार को जमीन पर पैर रखकर सोचना चाहिए। अभी सरकार हवा में सोच रही है। सारे काम सरकार के हवा-हवाई हुआ करते हैं। देहात में एक शब्द है ‘लुच्चा और लुचपना’, अगर देश की योजना के संबंध में अपनी राय एक शब्द में ढालना है तो उसके लिए सबसे अच्छा शब्द है ‘लुचपना’। ‘लुचपना’ का अर्थ है हैसियत कम और दिमाग़ का बेकार बढ़ा-चढ़ा रहना, हैसियत से अधिक खर्च करना”।

भाषाओं का कोई पारस्परिक अंतर्विरोध नहीं होता। इसकी शानदार अभिव्यक्ति करते हुए बी एन मंडल 10 अगस्त 67 को राज्यसभा में कहते हैं, “हिंदी भाषा में जो शब्द अंग्रेज़ी के, फ़ारसी के, अरबी के आ गये हैं, उनको इसमें ले लेना चाहिए। लेकिन, इसके साथ ही जो दक्षिणी भाषाओं के प्रचलित शब्द हैं, ऐसे शब्दों का भी संज्ञा के रूप में और क्रिया के रूप में हिंदी भाषा में समावेश कर लेना चाहिए। मेरा सुझाव है कि हिंदी को क्लि।ट संस्कृत शब्दों से कठिन बनाना हिंदी के प्रति द्रोह है”।

इसी विषय पर लोकसभा में बोलते हुए वे 19 मई 1963 को कहते हैं, “मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं हिंदी के लिए पागल नहीं हूं। मैं तमिल, तेलुगू, असमिया, बांग्ला और सभी देशी भाषाओं को अपने-अपने स्थान पर प्रतिष्ठित देखना चाहता हूँ”। अंग्रेज़ियत का रौब झाड़ने वालों के एटिट्यूड पर आगे वे कहते हैं, “भारतीय लोकसभा ऐसा नहीं मालूम होता है कि भारतीय है। यह तो विलायती या अमरीकी लोकसभा का दृष्य उपस्थित करती है”।

बिहार में सरकारी स्तर पर सामंतशाही के संरक्षण पर वो चोट करते हैं, जब केदार पांडेय की सरकार के दौरान समाजवादी विधायक सूर्यनारायण सिंह को 1973 में इतनी बर्बरता से पीटा गया कि उनकी मौत हो गई। 2 मई 73 को रा.स. में सवाल उठाते हुए भूपेंद्र बाबू ने कहा, “जब सूर्यनारायण सिंह को पुलिस लाठी से मार रही थी, उस समय पूंजीपति के घर पर बिहार का मुख्यमंत्री और एक युनियन का नेता बैठ कर चाय पी रहे थे। और, कहा जाता है कि इन लोगों के षड्यंत्र की वजह से ही उनको मार लगी। … जलाने के समय में जब उनकी देह को खोला गया, तो समूची पीठ का चमड़ा लाठी की मार से फट गया था।…ऐसी हालत में अगर लोग अहिंसा को छोड़कर हिंसा का मार्ग पकड़ते हैं तो कौन-सी बेजा बात करते हैं”।

लोहिया जी का इतना स्नेह भूपेंद्र बाबू पर था कि एक बार जर्मनी से पढ़ के आए एक व्यक्ति ने बिहार में सामाजवादी आंदोलन पर शोध के लिए बिहार पहुंच कर लोहिया जी को फ़ोन किया। तो लोहिया जी ने कहा, “कहां ठहरे हुए हो ?” तो उस शख़्स ने जवाब दिया कि भूपेंद्र बाबू के घर। इस पर लोहिया जी ने कहा कि फिर भूपेन्द्र बाबू से बेहतर तुम्हें समाजवादी आंदोलन के बारे में और कौन बताएगा ? कॉलिज ऑव कॉमर्स, पटना में वनस्पतिविज्ञान विभाग में कार्यरत भूपेंद्र बाबू के पौत्र दीपक प्रसाद बताते हैं कि जब एक विदेश दौरे पर उन्हें जाना था, तो उन्होंने अपनी पार्टी के दूसरे सांसद को यह अवसर दिया। आजीवन सादा जीवन जीने के हिमायती रहे, और अपनी जड़ों को जमीन के अंदर काफी गहरे फैलाए हुए थे। एक बार दिल्ली स्थित उनके आवास वी.पी. हाउस में रह रहे उनके किसी सहयोगी ने उनसे कहा कि सर, दीपक (पौत्र) को बहुत दिक्कत होती है जब क्षेत्र से आने वाले लोगों का यहां ताँता लगा रहता है (जबकि कष्ट दीपक जी को नहीं, बल्कि ख़ुद उस शख़्स को हो रही थी)। इस पर भूपेंद्र बाबू ने कहा, “तो सुन लो, और दीपक से भी कह देना कि यह मेरा आवास कोई स्थाई, निजी और अनंतकाल के लिए नहीं है। समूचे बिहार की नुमाइंदगी करने के लिए यहां भेजा गया हूं। जनता है, तो हम हैं। उन्हीं से मिलने के लिए यह आवास सरकार ने मुझे दिया है। ज़्यादे परेशानी हो रही हो, तो बाहर कमरा लेकर रहो”।

ऐसे उदात्त स्वभाव के थे कर्मयोगी जनसेवक भूपेन्द्र बाबू। वहीं, नये-नये लोगों की हौसलाफ़ज़ाई भी किया करते थे, और मंच भी प्रदान करते थे। सम्पूर्ण क्रांति के वक़्त बहुत बीमार चल रहे थे, जेपी की रैली में जाना चाह रहे थे, पर डॉक्टर ने मना कर दिया था। लेकिन उनका आवास बिहार से आने वाले लोगों के लिए हमेशा खुला रहा। परिवर्तन की जो आस उन्हें पटना वि.वि. छात्र संघ के तत्कालीन अध्यक्ष लालू प्रसाद में दिखी, तो बीमार हालत में भी ख़ुद चलकर उन्हें शाबासी दे आए। यह बात मुख्यमंत्री बनने के बाद लालू प्रसाद ने दीपक जी से एक बातचीत में बताई थी। इतने बड़े क़द के समाजवादी नेता और पारिवारिक ऐश्वर्य का लेशमात्र भी अभिमान जीवनशैली व देहभाषा में नहीं। यही सलाहियत उन्हें अपने दौर के अनेकों नेताओं से बहुत ऊपर उठा देती है।

राज्यसभा सांसद रहते हुए बैलगाड़ी से क्षेत्र का भ्रमण करते हुए सुदूर देहात टेंगराहा में अपने एक मित्र के यहां रात्रिविश्राम के दौरान 29 मई 1975 को वो इस जहां से चले गए। आज जबकि अधिकांश जनसेवक जनसेवा के नाम पर जो कुछ करते हैं, वो बाक़ी सब कुछ हो सकता है, जनसेवा तो कतई नहीं। अदम गोण्डवी ने ऐसे प्रपंची-कपटी सियासतदानों का बड़ा ही सटीक चित्रण किया है –

एक जनसेवक को दुनिया में ‘अदम’ क्या चाहिए

चार-छ: चमचे रहें, माइक रहे, माला रहे।

राजनीतिक मूल्यों के गिरते दौर में युगबोध व वैश्विक दृष्टिसंपन्न जननेता भूपेन्द्र नारायण मंडल का ज़मीनी संघर्ष हमें उजालों के सफ़र की ओर ले जाता है। आशा है, शुचिता भरी राजनीति का आज की तारीख़ में बदलती आबोहवा में भी मज़ाक नहीं उड़ाया जाएगा। उनके सामाजिक-राजनैतिक-शैक्षणिक-सांस्कृतिक योगदान के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने 1992 में मधेपुरा में बीएन मंडल युनिवर्सिटी स्थापित किया।

बी.एन. मंडल की स्मृति में पिछले वर्ष सामाजिक न्याय के लिए किसी भी क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए सोशल जस्टिस अवार्ड शुरू करने का निर्णय लिया गया। पहला सोशल जस्टिस अवार्ड छात्र-शिक्षक-नुमाइंदगी-शिक्षा-शोध-समाज-राष्ट्रनिर्माण-मानवता आदि के सरोकारों को संसद में अनवरत उठाने वाले व तीन मुख़्तलिफ़ सूबों से चुनकर लोकसभा पहुंचने वाले देश के चौथे मात्र (अटल बिहारी, शरद यादव, नरसिम्हा राव और मीरा कुमार) सियासतदां शरद यादव को दिया गया। सोशल जस्टिस अवार्ड कमिटि की ओर से युवा वर्ग के लिए भी सोशल जस्टिस युथ अवार्ड प्रारंभ किया गया है। नयी पीढ़ी की चेतना से जुड़ने व नई प्रतिभाओं के बीच एक समृद्ध बौद्धिक विरासत को ले जाने के मक़सद से अलग-अलग विश्वविद्यालयों में उनकी स्मृति में व्याख्यानमाला आयोजित करने की योजना है ताकि सही मायने में तामझाम से दूर रहने वाले एक सच्चे समाजवादी राजनेता के प्रति हम भावांजलि दे सकें।

 

-जयन्त जिज्ञासु

शोधार्थी, सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़,

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली

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