भारतीय ज्ञानोदय और पुनर्जागरण की पहली संस्था: सत्यशोधक समाज
आज ही के दिन 24 सितंबर 1873 को सत्यशोधक समाज की स्थापना फुले दंपत्ति ने की थी। वर्ण-जाति व्यवस्था एवं ब्राह्मणवादी पितृसत्ता और उन्हें समर्थन देने वाले धर्म, धर्मग्रंथों और ईश्वर को खारिज किए बिना और इसकी जगह तर्क, समता, स्वतंत्रता और मनुष्य के विवेक को जगह दिए बिना भारत को मध्यकालीन युग से बाहर निकालना संभव नहीं था और न है और न ही इसके बिना ज्ञानोदय और पुनर्जागरण की शुरूआत हो सकती थी।
भारत की देशज मध्यकालीन वर्ण-जातिवादी एवं पितृसत्तावादी विश्वदृष्टि को आधुनिक युग में पहली बार फुले दंपत्ति ने चुनौती दी। जिन्होंने सत्य शोधक समाज (24 सिंतबर1873) के माध्यम से वर्ण-जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवादी पितृ सत्ता को निर्णायक चुनौती दी और तर्क, विवेक और समता आधारित आधुनिक भारत के निर्माण की नींव रखी और ज्ञानोदय एवं पुनर्जागरण की शुरूआत की। उन्होंने स्त्री-पुरूष समता की पूर्ण स्थापना के लिए सत्यशोधक विवाह पद्धति भी स्थापित की।
कोई पूछ सकता है कि राजाराम मोहन राय और द्वारिका नाथ टैगोर द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज (1828), आत्माराम पांडुरंग तथा महादेव गोविन्द रानाडे द्वारा स्थापित प्रार्थना समाज (1867) और दयानंद सरस्वती द्वारा स्थापित आर्य समाज (1875) जैसे संगठन और इनके संस्थापक व्यक्तित्वों की क्या भूमिका थी? जिन्हें अधिकांश भारतीय इतिहासकार भारतीय ज्ञानोदय और पुनर्जागरण का अगुवा मानते हैं।
इस संदर्भ में जाति का विनाश किताब में डॉ. आंबेडकर की टिप्पणी सटीक है कि ये मुख्यत: परिवार सुधार आंदोलन थे। राजाराम मोहनराय, द्वारिका नाथ टैगोर, आत्माराम पांडुरंग तथा महादेव गोविन्द रानाडे और दयानंद सरस्वती जैसे व्यक्तित्व और इनके द्वारा स्थापित संगठनों ने वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता को निर्णायक चुनौती देने की जगह इसमें थोड़े- बहुत ऊपरी सुधार की बातें करते थे। जैसे कोई कहता छुआछूत गलत है, कोई कहता था कि सती प्रथा गलत है, कोई कहता कि बाल विवाह गलत है, कोई कहता था कि विधवा विवाह होना चाहिए।
कोई कहता था कि जाति खराब है, लेकिन वर्ण-व्यवस्था ठीक है, कोई कहता महिलाओं को भी पढ़ने का अधिकार होना चाहिए। कोई कहता वेद सही हैं, स्मृतियां (मनुस्मृति आदि) खराब हैं। लेकिन इनमें से कोई भारत में इस सब की जड़ वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता तथा इसे पोषित करने वाले हिंदू धर्म, धर्मग्रंथों और ईश्वर को निर्णायक चुनौती नहीं दिया। न ही ये लोग बहुसंख्य समाज शूद्रों ( पिछड़ों) अति शूद्रों ( दलितों) और महिलाओं की दासता के लिए जिम्मेदार ब्राह्मणवादी (भारतीय सामंतवाद) विश्वदृष्टि को पूरी तरह खारिज करते थे। ब्रह्म समाज में ब्राह्मणों के अलावा किसी को पूजा कराने का अधिकार तक नहीं था। दयानंद सरस्वती तो वेदों और वर्ण-व्यवस्था में पूरी तरह विश्वास करते थे।
रानाडे इन सब में सबसे ज्यादा प्रगतिशील थे, लेकिन वे भी अपने प्रार्थना समाज को भारत में मध्यकालीन जड़ता के लिए जिम्मेदार हिंदू धर्म और उसका पोषण करने वाले ब्राह्मणों-द्विजों के दायरे से बाहर नहीं निकाल पाए। इसकी चर्चा डॉ. आंबेडकर ने अपने भाषण रानाडे, गांधी और जिन्ना में विस्तार से किया है।
जोतीराव फुले के ज्ञानोदय और पुनर्जागरण की परंपरा को शाहू महाराज, डॉ. आंबेडकर, आयोथी थास, पेरियार, श्रीनारायण गुरु, आय्यंकाली, संतराम वी.ए. मंगू राम, स्वामी अछूतानंद, चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु, पेरियार ललई सिंह यादव, रामस्वरूप वर्मा, शहीद जगदेव प्रसाद, महाराज भारती आदि बहुजन नायकों ने आगे बढ़ाया। बंगाल ( आज का पश्चिम बंगाल और बंग्लादेश) में इसे नमो शूद्रा आंदोलन ने एक नई उंचाई दी थी।
लेकिन भारतीय ज्ञान-विज्ञान पर कब्जा जमाएं दक्षिण पंथियों ( जैसे राधाकृष्णन), उदारवादियों ( जैसे विपिन चंद्रा) और वामपंथियों ( जैसे सुमित सरकार और अयोध्या सिंह) ने ज्ञानोदय और पुनर्जागरण की राजाराम मोहन राय की हिंदू पुनरूत्थानवादी परंपरा को भारत की पुनर्जागरण की परंपरा को रूप में स्थापित किया और भारत में वास्तविक ज्ञानोदय और पुनर्जागरण की परंपरा को किनारे लगा दिया, सच यह है कि उसे नोटिस लेने लायक भी नहीं समझा। सुमित सरकार ने बहुत बाद में जाकर अपनी भूल गलतियों को थोड़ा दुरूस्त करने की कोशिश की।
आश्चर्यजनक तो यह है कि सबसे सम्मानित और चर्चित वामपंथी पुरोधा देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय ( भारतीय दर्शन) और के दामोदरन ( भारतीय चिंतन परंपरा) जैसे लोग भी अपनी किताबों में फुले,पेरियार, आंबेडकर, आयोथी थास, श्रीनारायण गुरु और आय्यंकाली जैसे लोगों को नाम लेना भी उचित नहीं समझते हैं और आधुनिक युग के सामाजिक सुधारकों को रूप में विद्याचंद सागर,विवेकानंद और गांधी आदि को स्थापित करते हैं।राजनीति में हिंदू पुनरूत्थानवादी धारा का प्रतिनिधित्व तिलक और गांधी ने किया।
जब दक्षिणपंथ, उदारपंथ और वामपंथ सभी मिलकर कमोवेश हिंदू पुनरूत्थानवादियों को ही ज्ञानोदय और पुनर्जागरण के वाहक के रूप में स्थापित करते रहे थे, तो चाहे-अनचाहे नतीजे के तौर हिंदू पुनरूत्थानवादी ( संघ) को स्थापित होना ही था और आज वह पूरी तरह हो गया। संघ का वर्चस्व इसका जीता-जागता सबूत है।
सिर्फ और सिर्फ ज्ञानोदय और पुनर्जागरण की देशज बहुजन परंपरा में वे बीज तत्व हैं, जिनके आधार पर भारत का आधुनिकीकरण किया जा सकता था और है, लेकिन जातीय श्रेष्ठताबोध के संस्कारों में पले-बढ़े अपरकॉस्ट के बौद्धिक वर्ग के लिए यह स्वीकार करना मुश्किल था और आज भी है, और दुर्भाग्य से आज भी यही लोग भारत के बौद्धिक वर्ग रूप में कमोवेश अपना वर्चस्व कायम किए हुए हैं। कोढ़ में खाज का काम वामपंथी पार्टियों की वर्ण- जाति के प्रति नजरिए ने किया।
यह लेख वरिष्ठ पत्रकार डॉक्टर सिद्धार्थ रामू के निजी विचार है
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