डॉ मनीषा बांगर को डॉ पायल तडवी की दुखद घटना सुनकर अपने मेडिकल पढ़ाई के वक्त का ये वाकया याद आया।
डॉ. पायल तडवी अब इस दुनिया में नहीं है। उसकी जान किसने ली, अब यह हम सभी जानते हैं। यह भी कि किस तरह द्विज जातियों की तीन महिलाएं जो कि स्वयं भी मेडिकल की छात्राएं हैं, के द्वारा जातिगत और विद्वेषपूर्ण आचरण के कारण डॉ पायल तडवी ने खुदकुशी कर ली। हालांकि पुलिस ने इन तीनों महिलाओं के खिलाफ एक्शन लिया है, लेकिन भारतीय न्यायिक व्यवस्था में कानूनी प्रावधानों को देखते हुए इन तीनों को सजा मिलेगी, यकीनी तौर पर नहीं कहा जा सकता है।
मैं स्वयं चिकित्सक हूं और मैंने स्वयं उस पीड़ा को महसूस किया है जो डॉ. पायल तडवी को सहनी पड़ी होगी। बात उन दिनों की है जब मैं गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज नागपुर (GMC, Nagpur) से एमबीबीएस (MBBS) कर रही थी। मैं पढ़ने में आगे थी। एमबीबीएस के तीनों साल मै फर्स्ट क्लास ही आयी। शुरुआत में तो अधिकांश मुझे सवर्ण का ही समझते थे। कई मेरे सामने ही कहते भी थे। उनके ऐसा समझने की वजह मेरा रंग, जीवन शैली, आत्मविश्वास, फर्राटेदार इंग्लिश बोलना आदि रहा।
हालाकि मैं खुद भी तब इन बातों पर अधिक गौर नहीं देती थी कि कौन किस जाति का है।
सब कुछ ठीक चल रहा था। मेरे साथ पढ़ने वाले भी मुझसे अच्छा संबंध रखते थे। चूंकि मैं शुरू से अपने आपको अनुशासित रखती आई हूं, इसलिए मुझे एमबीबीएस के दिनों में भी कोई खास समस्या नहीं आयी। शिक्षक भी मुझसे स्नेह रखते थे। लेकिन मैंने कई बहुजन छात्रों को देखा जो ग्रामीण इलाकों से और अधिकांश गैर अंग्रेजीभाषी थे। उनके साथ भेदभाव होता था। साथ ही साथ बहुजन छात्रों को ज्यादा से ज्यादा बैक बैच में जाना पड़ता था। एक और बात यह भी कि आरक्षण से आए हुए छात्रों के बैच भी अलग हुआ करता था।
संभवत: यही वजह रही होगी कि कैंपस में सवर्णों का ग्रुप और बहुजनों का अलग-अलग ग्रुप बन गया था। हॉस्टल में जो रैगिंग की खबरें सुनने में आती थी, उसमें भी शिकार बहुजन छात्र ही होते थे। उन्हें हतोत्साहित करने वाले लड़के सवर्ण होते थे। मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि धर्मों से संबंधं रखने वाले छात्र-छात्राएं कुल 200 के बैच में इतने कम थे कि उन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता था। एमबीबीएस के साढ़े चार सालों में पढ़ाई का ही प्रेशर हमारे लिए काफी था। बाकी दुनिया में क्या हो रहा है यह देखने का समय ही कहां होता था तब। मगर फिर भी अप्रत्यक्ष रूप से एक धारणा हमेशा ही हवा में तैरती थी थी कि हमारे बीच ये जो बहुजन हैं, ये आरक्षित वर्ग से आए हैं और ये दूसरों से कमतर हैं। बहुजन छात्र भी कुछ अपवादों को छोड़ कर दबे-दबे से ही रहते थे। खासकर वे जो गांव से आए थे।
लेकिन यह केवल एक पक्ष है। इसका दूसरा पक्ष बहुत ही स्याह है। इतना स्याह कि यदि कोई मानसिक रूप से मजबूत न हो अथवा पारिवारिक सहयोग न हो तो डा. पायल तडवी जैसा कदम उठा ले। भले ही एमबीबीएस में मेरे साथ प्रत्यक्ष रूप में जातिवादी व्यवहार नहीं किया गया पर पोस्ट ग्रेजुएशन ( MD, Internal Medicine) और सुपरस्पेशलिटी (DM, Gastroenterology) के वक्त मुझे जातीय प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा था। इस बारे में विस्तृत रूप से दूसरे लेख में मै लिखकर आप के सामने रखूंगी।
फिलहाल मै आपके सामने मेरे एमबीबीएस के दिनों की वो घटना रखती हूं जो मुझे डॉ पायल की दुखद घटना की न्यूज़ मिलते ही मुझे अनायास याद आयी। इस तरह से कि लगातार अवहेलना का शिकार होना कैसा लगता है या किसी से कमतर समझा जाना या बताया जाना कि तुम अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि की वजह से बाकी छात्रों से कम हो। अगर ऐसे वक्त आत्मविश्वास फिर से बढ़ाने वाली कोई घटना ना घटी हो या आत्मविश्वास जब खत्म किया गया हो उस वक्त किसी की सराहन या सपोर्ट ना मिले तो डॉ पायल तडवी जैसी घटना का होना कितना मुमकिन हो जाता है.
दरअसल, उन दिनों मेरे कॉलेज में वार्षिक डिबेट प्रोग्राम था। तीनों वर्षों के छात्र-छात्राएं एकसाथ जुटे थे। एक वर्ष में 200 छात्र-छात्राओं का नामांकन एमबीबीएस प्रोग्राम में होता था। इस प्रकार कुल 600 छात्रों से कॉलेज का सभागार भरा था।
प्रोग्राम के पहले मुझे यकीन था कि मुझे भी डिबेट में भाग लेने का मौका मिलेगा। मैंने इसकी पुरजोर कोशिश की थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और तब मेरे मन में यह आया कि ऐसा इसलिए भी हुआ होगा कि मुझमें कोई कमी होगी। लेकिन इसकी वजह मेरी जाति थी। मैं महाराष्ट्र के गैर सवर्ण समुदाय से आती हूं। वरना कोई वजह ही नहीं थी कि मेरा सिलेक्शन ना होता। अध्यापकों ने अपने आप ही न जाने किस आधार पर डिबेट में भाग लेने वालों का नाम चयन कर लिया था और आश्चर्य कि टीम A और टीम B दोनों में ही द्विज छात्रों का चयन हुआ। बाकी सब डिबेट के दर्शक बन बैठे हुए थे।
खैर, डिबेट में भाग लेने से मुझे रोक दिया गया। लेकिन दर्शक दीर्घा में बैठने के अधिकार से वे मुझे कैसे वंचित कर सकते थे?
कार्यक्रम चल रहा था। डीन सहित सभी शिक्षक और कई बाहरी शिक्षक भी मौजूद थे। उनमें से मुख्य अतिथि डा. वी.एस. चौबे भी थे जो कि ना सिर्फ जीएमसी नागपुर के डीन थे बल्कि उस वक्त के एमडी मेडिसिन स्पेशियलिटी में देश के प्रख्यात डॉक्टर थे । उनकी बहुत प्रतिष्ठा थी। उन्होंने एक सवाल डिबेट में भाग लेने वाली टीमों से पूछा। सवाल जटिल था। जब कोई जवाब नहीं मिला तब उन्होंने यह सवाल दर्शक के रूप में मौजूद हमसब से पूछा। मैंने उस सवाल का सही-सही जवाब दिया।
जब डिबेट प्रोग्राम में विजेताओं को इनाम देने की बारी आयी तब डा. चौबे ने अपने संबोधन से सबको चौंका दिया। उन्होंने कहा कि इस समय इस सभागार में एक वह भी है जिसे डिबेट में भाग लेना चाहिए था। वह सर्वश्रेष्ठ है।
मैं यह तो समझ रही थी कि वे इन शब्दों का प्रयोग मेरे लिए ही कर रहे हैं। लेकिन चूंकि उन्होंने खुले तौर पर कुछ नहीं कहा था। चूंकि डिबेट में मेरे अलावा कई और छात्रों ने सवालों के जवाब दिए थे। मैं पूरी तरह आश्वस्त नहीं थी कि वे मेरे बारे में ही कह रहे हैं।
फिर उन्होंने मेरी तरफ इशारा किया। पूरा सभागार तालियों से गूंज उठा। दोनो टीम को शील्ड वितरण के पहले ही उन्होंने मुझे स्टेज पर बुलाया. अब दोनो टीम और सभागार की तालियां मेरे लिए बज रही थी. प्राइज शील्ड तो जीतने वाली टीम के लिए था और उनके पास मुझे देने के लिए कुछ नहीं था तो डॉ चौबे ने अपने पॉकेट से अपना पेन निकालकर मुझे दिया और मेरा नाम लेकर सभा को संबोधित करते हुए कहा one day she will be one of the very fine clinicians (एक दिन यह बेहतरीन चिकित्सको में से एक होगी)
यह मेरे लिए अविस्मरणीय क्षण था। मैं इतनी खुश थी कि घर जाकर मैंने अपनी मां को यह बार-बार बताया कि आज कितना गजब हो गया।
आज जब डा. पायल तडवी के बारे में सोच रही हूं तो लगता है कि यदि डा. चौबे मेरा नाम और मेरी जाति जानते तो क्या तब भी वे मेरे लिए उन शब्दों का प्रयोग करते जो उन्होंने बगैर मेरा नाम और मेरी जाति जाने केवल मेरी प्रतिभा के लिए किया था।
खयाल ये भी आया कि अगर डॉ पायल तडवी को भी उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि की वजह से उसके सीनियर द्वारा लगातार अवहेलना, द्वेष, मानसिक प्रताड़ना, अपमान, आत्मबल मनोबल को तहस नहस करने वाले अपशब्द, जाती भेदभाव के बजाय अगर प्रोत्साहन , सपोर्ट , और मनोबल बढ़ाने वाला व्यवहार मिला होता तो क्या डॉ पायल तडवी हताश होकर आत्महत्या जैसा अति भयावह कदम उठाती ??
-डॉ मनीषा बांगर
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