स्त्री-पुरूष संबंधों के बारे में क्या सोचते थे? फुले, पेरियार और डॉ. आंबेडकर
स्त्री-पुरुष के बीच कैसे रिश्ते हों? इस संदर्भ में भारत में दो अवधारणाएं रही हैं- ब्राह्मणवादी-मनुवादी अवधारणा और दलित-बहुजन अवधारणा। ब्राह्मणवादी-मनुवादी अवधारणा यह मानती है कि स्त्री पूर्णतया पुूरुष के अधीन है। यह ब्राह्मणवादी-मनुवादी विचारधारा तमाम शास्त्रों, पुराणों, रामायण, महाभारत, गीता और वेदों व उनसे जुड़ी कथाओं, उप-कथाओं, अंतर्कथाओं और मिथकों तक फैली हुई है। इन सभी का एक स्वर में कहना है कि स्त्री को स्वतंत्र नहीं होना चाहिए। मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य-स्मृति जैसे धर्म-ग्रंथों ने बार-बार यही दोहराया है कि ‘स्त्री आजादी से वंचित’ है अथवा ‘स्वतंत्रता के लिए अपात्र’ है। मनुस्मृति का स्पष्ट कहना है कि-
पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षित यौवने।
रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्रमर्हति।। ( मनुस्मृति 9.3)
ब्राह्मणवादी-मनुवावादी विचार शूद्रों की तरह स्त्रियों को भी शिक्षा के लिए अपात्र मानती है। महिलाओं को भी संपत्ति रखने का अधिकार नहीं देती। इस विचारधारा में स्त्री, पुरुष के सुखों का साधन है। उसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है।
इसके विपरीत, दलित-बहुजन श्रमण परंपरा वर्ण-जाति व्यवस्था से मुक्ति के साथ-साथ पुरुषों की पराधीनता से स्त्री की मुक्ति का संघर्ष भी साथ-साथ करती रही है। इसकी शुरुआत बुद्ध के साथ होती है। डॉ. आंबेडकर ने अपनी किताब ‘हिंदू नारी उत्थान और पतन’ तथ्यों के साथ प्रमाणित किया है कि बुद्ध, स्त्री-पुरुष समानता के पक्षधर थे। आधुनिक युग स्त्री-मुक्ति संघर्ष को ज्योतिराव फुले (जन्म -11 अप्रैल 1827, मृत्यु- 28 नवंबर 1890) ईवी रामासामी नायक ‘पेरियार’ (17 सितंबर, 1879-24 दिसंबर, 1973) और डॉ.आंबेडकर (14 अप्रैल, 1891 – 6 दिसंबर, 1956) ने मुकम्मल शक्ल दी।
फुले, पेरियार और डॉ. आंबेडकर ने शूद्रों-अतिशूद्रों पर सवर्णों के वर्चस्व और महिलाओं पर पुरुषों के वर्चस्व के बीच सीधा और गहरा संबंध देखा। सारे ब्राह्मणवादी ग्रंथ शूद्र और स्त्री को एक ही श्रेणी में रखते हैं। वे साफ शब्दों में कहते हैं कि- “स्त्रीशूद्राश्च सधर्माण:” ( अर्थात स्त्री और शूद्र एक समान होते हैं)। गीता के अध्याय नौ के बत्तीसवें श्लोक में जन्म से ही स्त्रियों, वैश्यों और शूद्रों को पाप योनियों की संज्ञा दी गई है। धर्मग्रंथों का आदेश है कि- “स्त्रीशूद्रौ नाधीयताम्” ( अ्रर्थात स्त्री और शूद्र अध्ययन न करें)।
ज्योतिराव फूले ने शूद्रों, अतिशूद्रों और स्त्रियों को ब्राह्मणों द्वारा खड़ी की गई व्यवस्था में शोषित-उत्पीड़ित की तरह देखा। फुले दंपति ने जाति और स्त्री प्रश्न को एक ही सिक्के के दो पहलुओं के रूप में देखा और दोनों को अपने संघर्ष का निशाना बनाया। हिंदू समाज व्यवस्था को उसकी समग्रता में समझने और बदलने की कोशिशों और जाति के भौतिक संसाधनों, ज्ञान और जेंडर संबंधों के जटिल ताने-बाने के तहत समझ विकसित करने के फुले के प्रयासों के कारण गेल ओमवेट ने उन्हें जाति का पहला ऐतिहासिक भौतिकवादी सिद्धांतकार कहा है।
4 सितंबर 1873 को ज्योतिराव फुले ने सत्यशोधक समाज का गठन किया। सत्यशोधक समाज ने सत्यशोधक विवाह-पद्धति की शुरुआत की। इस विवाह-पद्धति में यह माना जाता था कि स्त्री और पुरुष जीवन के सभी क्षेत्रों में समान हैं; उनके अधिकार एवं कर्तव्य समान हैं। किसी भी मामले में और किसी भी तरह से स्त्री पुरुष से दोयम दर्जे की नहीं है और न ही स्त्री जीवन के किसी मामले में पुरुष के अधीन है। स्त्री पुरुष के जितनी ही स्वतंत्र है। फुलेे ने लिखा कि ‘स्त्री और पुरुष दोनों सारे मानवी अधिकारों का उपभोग करने के पात्र हैं। फिर पुरुष के लिए अलग नियम और स्त्री के लिए अलग नियम क्यों?
पेरियार जीवन के सभी क्षेत्रों में स्त्री-पुरुष को समान मानते हैं। वे कहते हैं कि भारत में महिलाएं हर क्षेत्र में अस्पृश्यों से भी अधिक उत्पीड़न, अपमान और दासता झेलती हैं। चूंकि, हम इस बात को समझ नहीं पाते कि स्त्री की पराधीनता सामाजिक विनाश की ओर ले जाती है; इसीलिए अपनी सोचने-विचारने की सामर्थ्य के चलते, जिस समाज को विकास की सीढ़ियां चढ़नी चाहिए, वह दिन-ब-दिन पतन की ओर बढ़ता जाता है। वे साफ शब्दों में कहते हैं कि ‘पति‘ और ‘पत्नी‘ जैसे शब्द अनुचित हैं। वे केवल एक-दूसरे के साथी और सहयोगी हैं; गुलाम नहीं। दोनों का दर्ज़ा समान है। अपने चर्चित निबंध ‘आने वाली दुनिया में’ वे कहते हैं कि स्त्री-पुरुष दोनों एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करेंगे और किसी का प्रेम बलात् (जबरन) हासिल करने की कोशिश नहीं की जाएगी। स्त्री-दासता के लिए कोई जगह नहीं होगी। पुरुष की सत्तात्मकता मिटेगी। दोनों में कोई भी एक-दूसरे पर बल-प्रयोग नहीं करेगा। आने वाले समाज में कहीं कोई वेश्यावृत्ति नहीं रहेगी। स्त्री-पुरुष दोनों पूरी तरह आजाद और समान होंगे।” पेरियार ने स्त्री-पुरुष समानता पर आधारित आत्मसम्मान विवाह-पद्धति की शुरुआत की।
डॉ. आंबेडकर ने 24 वर्ष की उम्र में कोलंबिया में 1916 में प्रस्तुत अपने शोध-निबंध ‘भारत में जातियां: उनका तंत्र, उत्पत्ति और विकास’ में विस्तार भारत में महिलाओं की गुलामी के कारणों को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि “सती-प्रथा, विधवा-विवाह न होना और बाल-विवाह का प्रचलन भी स्त्री की यौनिकता को नियंत्रित करने और जाति की पवित्रता को बनाए रखने के लिए हुआ था।” उनका निष्कर्ष यह था कि भारत में जाति और पितृसत्ता के बीच अटूट संबंध है। पितृसत्ता को तोड़े बिना जाति नहीं टूट सकती और जाति के टूटे बिना पितृसत्ता से मुक्ति नहीं मिल सकती। क्योंकि, दोनों एक साथ ही पैदा हुए हैं और दोनों की मृत्यु भी एक साथ ही होगी।
डॉ आंबेडकर ने अपने विस्तृत लेखन में बार-बार यह रेखांकित किया कि वर्ण-जाति व्यवस्था और स्त्री की गुलामी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ब्राह्मणवाद दोनों का संरक्षक है। इसको विस्तृत तौर पर उन्होंने ‘प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति’, ‘हिंदू धर्म की पहेलियां’ और ‘हिंदू नारी उत्थान और पतन’ जैसी किताबों में प्रस्तुत किया। हिंदू महिलाओं की मुक्ति के लिए उन्होंने हिंदू कोड बिल प्रस्तुत किया। उन्होंने इस कोड बिल (5 फरवरी 1951) में ब्राह्मणवादी विवाह-पद्धति को पूरी तरह से तोड़ देने का कानूनी प्रावधान प्रस्तुत किया। उन्होंने इस कोड बिल में यह प्रस्ताव किया कि कोई भी बालिग लड़का-लड़की बिना अभिभावकों की अनुमति के आपसी सहमति से विवाह कर सकते हैं। इस बिल में लड़का-लड़की दोनों को समान माना गया था। इस बिल का मानना था कि विवाह कोई जन्म भर का बंधन नहीं है; तलाक लेकर पति-पत्नी एक-दूसरे से अलग हो सकते हैं। विवाह में जाति की कोई भूमिका नहीं होगी। कोई किसी भी जाति के लड़के या लड़की से शादी कर सकता है। शादी में जाति या अभिभावकों की अनुमति की कोई भूमिका नहीं होगी। शादी पूरी तरह से दो लोगों के बीच का निजी मामला है। इस बिल में डॉ. आंबेडकर ने लड़कियों को सम्पत्ति में भी अधिकार दिया था।
फुले, पेरियार और आंबेडकर ने महिलाओं की गुलामी की जड़ ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को तोड़ने के लिए ब्राह्मणवादी विवाह-पद्धति को खारिज किया और नई विवाह-पद्धति की शुरुआत की। फुले ने सत्यशोधक विवाह-पद्धति, पेरियार ने आत्माभिमान विवाह-पद्धति और आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल में नई तरह की विवाह-पद्धति का प्रावधान किया। आधुनिक युग में स्त्री मुक्ति के सच्चे पुरोधा फुले, पेरियार और आंबेडकर ही हैं।
लेखक- सिद्धार्थ आर, वरिष्ठ पत्रकार और लेखक व संपादक, हिंदी फॉरवर्ड प्रेस. सिद्धार्थ जी नेशनल इंडिया न्यूज को भी अपने लेखों के जरिए लगातार सेवा दे रहे हैं।
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