लालू यादव: फिराकपरस्ती के फ़न को कुचल के रख देने वाला सामाजिक न्याय का योद्धा!
सांप्रदायिक शक्तियों के ख़िलाफ़ अचल-अडिग डटे रहने वाले बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री व देश के पूर्व रेलमंत्री लालू प्रसाद बिना डिगे फ़िरकापरस्ती से जूझने का माद्दा रखने वाले, पत्थर तोड़ने वाली भगवतिया देवी, जयनारायण निषाद, ब्रह्मानंद पासवान, आदि को संसद भेजने वाले, खगड़िया स्टेशन पर बीड़ी बनाने वाले विद्यासागर निषाद को मंत्री बनाने वाले, आज़ादी के 43 वर्षों के बीत जाने के बाद भी बिहार जैसे पिछड़े सूबे में समाज के बड़े हिस्से के युवाओं को उच्च शिक्षा से जोड़ने हेतु 6 नये विश्वविद्यालय खोलने वाले लोकप्रिय, मक़बूल व विवादास्पद नेता लालू प्रसाद की सियासत को 1995 से क़रीब से देखने-समझने की कोशिश करता रहा हूँ।
लालू प्रसाद ने 90 की शुरूआत में यह साबित किया कि जमात की राजनीति से अभिजात्य वर्ग के वर्चस्व को चुनौती देकर समाज में समता व बंधुत्व को स्थापित किया जा सकता है। मानसिक शोषण व गुलामी से बहुत हद तक निजात दिलाने में वे क़ामयाब रहे। जिनके पैर बहुजनों को ठोकर मारते थे, उनके दर्प को तोड़ने का काम लालू प्रसाद ने किया। आरएसएस की उन्मादी, सांप्रदायिक, विभाजनकारी व राष्ट्रभंजक राजनीति करने वालों के ख़िलाफ़ खड़ी होने वाली लोकतांत्रिक शक्तियों की भूमिका व हमारे संघर्ष में उनके अंशदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।
बचपन से लालू प्रसाद की जनराजनीति व लोकसंवाद की अद्भुत कला को समझने की कोशिश कर रहा हूँ। वे सूचना व प्रसारण मंत्रालय की स्वायत्त इकाई व जनसंचार का मक्का कहे जाने वाले एशिया के सबसे बड़े संस्थान के रूप में चर्चित भारतीय जनसंचार संस्थान कभी नहीं गए, न एशियन कॉलिज ऑफ़ जर्नलिज़म, पर किसी भी मंझे हुए कम्युनिकेटर से कहीं ज़्यादा कुशलता व दक्षता के साथ अपना असर छोड़ते हुए जनसामान्य से संवाद स्थापित करने की कला में छात्रजीवन से ही पारंगत नेता हैं।
हैं और भी दुनिया में सियासतदां बहुत अच्छे
कहते हैं कि लालू का है अंदाज़े-बयां और। (ग़ालिब से माज़रत के साथ)
तब दूसरी जमात में पढ़ता था। मुझे ठीक ठीक ध्यान आता है, जो स्मृति आज भी धुंधली नहीं हुई है। माँ मेरी अंगुली थामे भीड़ में थीं। लालू प्रसाद बैरिकेड हटाने को बोल रहे हैं और पुलिस वालों को हड़का रहे हैं, महिलाओं को आगे आने के लिए कह रहे हैं। छोटे होने का फ़ायदा यह हुआ कि माँ के साथ मैं भी आगे बैठ गया औऱ नज़दीक से लालू प्रसाद के चेहरे पर आते-जाते भाव देख रहा था। वो रौन (अलौली) की एक विशाल जनसभा थी, और लालू प्रसाद अपनी रौ में बोल रहे थे :
ओ गाय चराने वालो, ओ भैंस चराने वालो,
ओ बकरी चरानेवालो, ओ भेड़ चराने वालो,
ओ घोंघा बीछने वालो,
ओ मूस (चूहे) के बिल से दाना निकालने वालो,
पढ़ना-लिखना सीखो, पढ़ना-लिखना सीखो।
उनकी हर अभिव्यक्ति पर जोशीली भीड़ ताली बजा रही थी। वो आज भी हिन्दी बेल्ट के उन चंद धुरंधर वक्ताओं की फ़ेहरिस्त में शुमार हैं जिनकी ओरेटरी का कोई ज़ोर नहीं। क्राउड पुलिंग में आज भी उनका कोई मुक़ाबला नहीं।
मुख्यमंत्री बनने के बाद 90 में अलौली में लालू जी का पहला कार्यक्रम था मिश्री सदा कॉलेज में। पिताजी उसी कॉलेज में गणित के व्याख्याता थे। कर्पूरी जी को याद करते हुए लालू जी ने कहा, “जब कर्पूरी जी आरक्षण की बात करते थे, तो लोग उन्हें मां-बहन-बेटी की गाली देते थे। और, जब मैं रिज़रवेशन की बात करता हूं, तो लोग गाली देने के पहले अगल-बगल देख लेते हैं कि कहीं कोई बहुजन समाज का शख्स सुन तो नहीं रहा है। ज़ादे भचर-भचर किये तो कुटैबो करेंगे। ये बदलाव इसलिए संभव हुआ कि कर्पूरी जी ने जो ताक़त हमको दी, उस पर आप सबने भरोसा किया है।”
बिहार में दस साल नीतीश ने संघ को अपना पैर पसारने का भरपूर अवसर मुहैया कराया व शासकीय संरक्षण दिया। मैंने लालू को लगातार पांच चुनाव में शिक़स्त खाते देखा है, पर विचारधारात्मक स्तर पर धर्मनिरपेक्षता के मामले में लड़खड़ाते कतई नहीं। लगातार पाँच चुनावों (फरवरी 05 व अक्टूबर 05 का विधानसभा चुनाव, 09 का लोस चुनाव, 10 का विस चुनाव एवं 14 का लोस चुनाव) में करारी हार के बाद आदमी सत्ता के गलियारे में अलबला के न जाने किस-किस से हाथ मिलाने को तैयार हो जाता है, मगर लालू प्रसाद ने भाजपा के साथ कभी कोई समझौता नहीं किया। इसीलिए, वे जॉर्ज फर्णांडिस, शरद यादव, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार से कहीं ज़्यादा बड़े नेता के रूप में अक़्लियतों के बीच स्थापित हैं। ऐसा नहीं कि जॉर्ज-शरद-रामविलास-मुलायम की पहले की लड़ाई को लोग भूल गये हैं या उसकी क़द्र नहीं है। लेकिन, सामाजिक न्याय साम्प्रदायिक सौहार्द के बगैर अधूरा रहेगा। लालू प्रसाद के प्रति मेरी अपनी आलोचनाएँ हैं, पर सियासी मूल्यांकन सदैव निरपेक्ष नहीं हो सकता। देश की मौजूदा परिस्थिति में मेरी यही मान्यता है। यह भी सच है कि जम्हूरियत में चुनाव ही सबकुछ नहीं है, वह तो राजनीति की कई गतिविधियों में से एक गतिविधि है, दुर्भाग्य है कि चुनाव को ही संपूर्ण राजनीति मान लिया गया है। सामाजिक-सांस्कृतिक जागृति के लिए उत्तर भारत में व्यापक स्तर पर कोई पहल कम ही हुई है।
कोई तो सूद चुकाए कोई तो ज़िम्मा ले
उस इंक़लाब का जो आज तक उधार-सा है।
-कैफ़ी आज़मी
बाक़ी बातें एक तरफ, लालू प्रसाद का सेक्युलर क्रेडेंशियल एक तरफ। लालू जी की इसी धर्मनिरपेक्ष छवि का क़ायल रहा हूं। 89 के दंगे के बाद विषाक्त हो चुके माहौल में 90 में सत्ता संभालने के बाद बिहार में कोई बड़ा दंगा नहीं होने दिया। मौजूदा हालात में जहां धर्मनिरपेक्ष देश को हिन्दू राष्ट्र में तब्दील करने की जबरन कोशिश की जा रही है, वैसे में सामाजिक फ़ासीवाद से जूझने का जीवट रखने वाले नेता कभी अप्रासंगिक नहीं हो सकते। बिहार में किसी को अपना कार्यकाल पूरा करने क्यों नहीं दिया जाता था, इस पर कभी सोचिएगा। चाहे वो दारोगा राय हों, भोला पासवान शास्त्री हों, अब्दुल गफ़ूर हों या कोई और, किसी ने अपना टर्म पूरा नहीं किया। कई मामलों में तुलनात्मक रूप से मैं लालू प्रसाद को श्री कृष्ण सिंह, केदार पांडेय, विनोदानंद झा, बिंदेश्वरी दूबे, भागवत झा आज़ाद, जगन्नाथ मिश्र और के.बी. सहाय (इनकी कार्यशैली के बारे में साहित्यकार, ट्रेड युनियन लीडर व एमएलए रहीं रमणिका जी बेहतर बताएंगी) से बेहतर मुख्यमंत्री मानता हूँ।
बिहार में सरकारी स्तर पर सामंतशाही के संरक्षण पर बिहार के पहले सोशलिस्ट विधायक, सांसद व सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे बी. एन. मंडल चोट करते हैं, जब केदार पांडेय की सरकार के दौरान समाजवादी विधायक सूर्यनारायण सिंह को 1973 में इतनी बर्बरता से पीटा गया कि उनकी मौत हो गई। 2 मई, 73 को राज्यसभा में सवाल उठाते हुए भूपेंद्र बाबू ने कहा, “जब सूर्यनारायण सिंह को पुलिस लाठी से मार रही थी, उस समय पूंजीपति के घर पर बिहार का मुख्यमंत्री और एक युनियन का नेता बैठ कर चाय पी रहे थे। और, कहा जाता है कि इन लोगों के षड्यंत्र की वजह से ही उनको मार लगी। … जलाने के समय में जब उनकी देह को खोला गया, तो समूची पीठ का चमड़ा लाठी की मार से फट गया था। ऐसी हालत में अगर लोग अहिंसा को छोड़कर हिंसा का मार्ग पकड़ते हैं, तो कौन-सी बेजा बात करते हैं”।
बिहार लेनिन बाबू जगदेव प्रसाद की किस बर्रबरता और अमानवीयता से हत्या की गई, वह किसी से छिपा नहीं है। उन्हें घसीटा गया, लाठियां बरसायी गईं, प्यास लगने पर उनके मुंह पर पेशाब करने की बात की गई, और साज़िश में जो रामाश्रय सिंह शामिल थे; 2005 में जब नीतीश कुमार लोजपा को तोड़कर गाय-माल की तरह 17-18 विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त कर रहे थे, उस वक़्त लोजपा से भागकर कथित रूप से एक करोड़ में जदयू के हाथों बिके उस आतताई को छविप्रिय ‘बालगांधी’ नीतीश जी ने अपने मंत्रीमंडल में संसदीय कार्य और जलसंसाधन मंत्री बना दिया।
कर्पूरी ठाकुर पर घोटाले का कहीं कोई आरोप नहीं था, पर दो-दो बार उनकी सरकार नहीं चलने दी गई। 70 के उत्तरार्ध में सिर्फ़ सिंचाई विभाग में वे 17000 वैकेंसिज़ लेकर आते हैं, और जनसंघी पृष्ठभूमि के लोग रामसुंदर दास को आगे करके एक हफ़्ते के अंदर सरकार गिरवा देते हैं। जहां एक साथ इतने बड़े पैमाने पर फेयर तरीक़े से ओपन रिक्रुटमेंट हो, वहां मास्टर रोल पर सजातीय लोगों को बहाल कर बाद में उन्हें नियमित कर देने की लत से लाचार जातिवादी लोग इस पहल को क्योंकर पचाने लगे!
श्री कृष्ण सिंह के बाद अपना कार्यकाल सफलतापूर्वक पूरा करने वाले लालू प्रसाद बिहार के पहले मुख्यमंत्री हैं। हां, अंतर्विरोधों से दो-चार होना भारतीय लोकतंत्र की नियति बनती जा रही है, जो कचोटता है। जिसने संचय-संग्रह की प्रवृत्ति से पार पा लिया, वह संसदीय राजनीतिक इतिहास में कर्पूरी ठाकुर-मधु लिमये की भांति अमर हो जाएगा। ऐसे त्याग की भावना के साथ जनसेवा करने वाले जनता के नुमाइंदे विरले आते हैं। पर, मैं आश्वस्त हूं कि आज भी भले लोग हैं जो ओछी महत्वाकांक्षाओं से परे समाज में परिवर्तन के पहिए को घुमाना चाहते हैं ताकि व्यक्ति की गरिमा खंडित न हो, सब लोगों के लिए प्रतिष्ठापूर्ण जीवन सुनिश्चित हो सके।
लालू और नीतीश में एक बड़ा फ़र्क यह भी है कि जहाँ लालू के समय में अफ़सरशाही को अपनी हद पता थी, वहीं नीतीश के काल में अफ़सर नंगा नाच करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। ग़रीब और कमज़ोर वर्गों पर पूरी नीचता के साथ धौंस जमाने का कोई मौक़ा नहीं जाने देते।
पिछले दिनों जिस बेशर्मी के साथ एक सीओ एक महिला के साथ गालीगलौज कर रहा था, उससे लगता है कि वो सीओ न हुआ कि पूरा अंचल ही उसके अब्बाजान की जागीर हो गई। इस कॉलोनियल माइंडसेट के साथ आम जनता को भेड़-बकरी समझने वाले अफ़सरान के लिए लालू प्रसाद का स्टाइल ही ठीक था जो रोज़ाना डेमोक्रोसी को एक्सरसाइज करते थे, डेमोक्रेटिक प्रॉसेस को डीपेन करने के काम में लगे रहते थे। अब इसे कोई खैनी लटवाने के प्रसंग से जोड़कर आइएएस की तौहीन समझे, तो उनकी इच्छा। उसके पीछे जो सामाजिक जागृति के संदर्भ में राजनैतिक संदेश था, वो बेहद गहरा था। प्रवचन करने से पहले थोड़ा पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन के पन्ने भी कभीकभार उलट लेना चाहिए।
लालू प्रसाद से पहले बिहार में कोई मुख्यमंत्री ही नहीं हुआ जो इतना भी संवेदनशील हो कि हर माह विशेष कष्ट के दिनों में कामकाजी महिलाओं के लिए दो दिन के विशेष अवकाश का प्रावधान करे। बहुधा मीडियानिर्मित धारणाप्रधान समाज में पुष्पित-पल्लवित महिलाएं भूल जाती हैं कि महीने के विशेष कष्ट के दिनों में उनका विशेष ख़्याल करते हुए लालू ने सत्ता में आने के दो साल के अंदर सेवारत खवातीन के लिए यह व्यवस्था कर दी। लालू को गरियाने से पहले ज़रा गूगल कर लें कि जो काम लालू ने आज से 25 साल पहले कर दिया था, वो काम आज भी इस देश के कितने सूबों के मुख्यमंत्री कर पाए हैं? यह तो सरासर कृतघ्नता है। कम-से-कम वो तो ‘गंवार’ सीएम रहे लालू का मज़ाक उड़ाना बंद कर दें। उन्हें तो क़ायदे से उनका शुक्रगुज़ार होना चाहिए।
सबसे अधिक ब्लॉक लालू ने बनाए, सबसे ज़्यादा प्राथमिक विद्यालय लालू ने खोले। इतना ही नहीं, लालू प्रसाद ने 5 स्टेट युनिवर्सिटी सत्ता में आने के 2 साल के अंदर और राबड़ी जी ने1 युनिवर्सिटी 8 माह के भीतर खोल दी। पर इसकी चर्चा आपने किसी मीडिया चैनल पर आज तक नहीं सुनी होगी। मोदी जी ने साढ़े 3 साल में कितनी सेंट्रल युनिवर्सिटी खोली? ज़रा कोई पता करे, मुझे भी जिज्ञासा हो रही है। उल्टे, आए दिन ये पब्लिक फंडेड युनिवर्सिटिज़ पर गिद्धदृष्टि डालकर उन्हें प्राइवेट हाथों के हवाले कर देना चाहते हैं। आज़ादी के बाद के बिहार में मुख्यमन्त्रियों की एक लंबी फ़ेहरिस्त है जिसमें तथाकथित सुशासन बाबू का भी नाम शुमार है। लेकिन किसी भी मुख्यमंत्री के नाम पाँच विश्वविद्यालयों की स्थापना का श्रेय नहीं है सिवाय लालू प्रसाद को छोड़ कर! क्या नीतीश ने एक भी विश्वविद्यालय की स्थापना की? लालू प्रसाद ने अपने पहले कार्यकाल के शुरूआती दो वर्षों मे बिहार को 5 नई युनिवर्सिटी (छपरा, आरा, हज़ारीबाग, मधेपुरा & दुमका में) दीं। एक तुरंत उसके बाद राबड़ी देवी के कार्यकाल में 98 में पटना में मिली। इतना करने में पूर्ववर्ती सरकारों को आज़ादी के बाद 43 साल लग गए। लालू की रफ़्तार ख़ुद ही सारा क़िस्सा बयाँ करती है कि समाज के बहुत बड़े वंचित वर्गों के युवाओं को उच्च शिक्षा से जोड़ने के लिए उनके अंदर क्या उमंग थी। बाद में कब, कैसे, क्या जाल बुने गए, क्या खेल हुए, हम सब उससे वाकिफ़ हैं। ऐसे व्यक्ति को भी जाहिल, गंवार और दृष्टिविहीन नेता साबित करने में मीडिया और बुद्धिजीवियों के एक बड़े वर्ग द्वारा कोई कोर कसर नहीं छोड़ी गई। ये रही सूची उन नये विश्वविद्यालयों की, मुझे कुछ नहीं कहना है :
1. जेपी विश्वविद्यालय, छपरा (90),
- वीर कुँवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा (92),
- बीएन मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा (92),
- विनोबा भावे विश्वविद्यालय, हज़ारीबाग़, (92),
- सिदो कान्हू मुर्मु विश्वविद्यालय, दुमका (92), और
- मौलाना मज़हरुल हक़ अरबी फ़ारसी विश्वविद्यालय, पटना (98)।
-जयंत जिज्ञासु
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