Home State Bihar & Jharkhand सवाल दस लाख आदिवासी परिवारों का नहीं पचास लाख आदिवासियों का है

सवाल दस लाख आदिवासी परिवारों का नहीं पचास लाख आदिवासियों का है

Published by- Aqil Raza
By – डॉ. मनीषा बांगर ~

सुप्रीम कोर्ट ने 13 फरवरी 2019 को अहम फैसला सुनाया है। इस फैसले के मुताबिक केंद्र व 21 राज्य सरकारों को यह सुनिश्चित करना है कि दस लाख से अधिक आदिवासी परिवार उस जमीन को छोड़ दें, जहां वे पीढ़ियों से रहते आए हैं। कोर्ट ने यह बात अपने मन से नहीं कही है। उसके सामने 21 राज्यों की सरकारों ने शपथ पत्र दाखिल कर कहा है कि दस लाख से अधिक आदिवासी परिवार यह सबूत नहीं पेश कर सका है कि वह जमीन का मालिक है।

पहले तो यह समझें कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का असर क्या होगा यदि इसे लागू किया गया। प्रति परिवार सदस्यों की औसतन संख्या यदि पांच भी मान लें तो दस लाख आदिवासी परिवारों का मतलब 50 लाख आदिवासी एक झटके में अपने जमीन से बेदखल कर दिए जाएंगे।

मामला 2006 में बने वनाधिकार कानून से जुड़ा है। कानून के मुताबिक वन पर सबसे पहला अधिकार आदिवासियों का है। लेकिन वन संपदा और खनिज संपदा को लेकर जंगलों में बाहरी लोगों का अतिक्रमण तेजी से हुआ है। इसी कड़ी में 2008 में एक जनहित याचिका एक स्वयंसेवी संस्था द्वारा दायर की गई थी। याचिका में कहा गया था कि जंगल में उन लोगों की संख्या तेजी से बढ़ रही है जो आदिवासी नहीं हैं। याचिका की सुनवाई के क्रम में ही सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को यह आदेश दिया था कि वे ऐसे लोगों की पहचान करें जो अनाधिकृत रूप से जंगलों में रह रहे हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने 13 फरवरी को जो फैसला दिया है उसके मुताबिक जिनके दावे खारिज हो चुके हैं, उन्हें कोई जमीन न दी जाय और उनके कब्जे में जो जमीन है, उसे हर हाल में मुक्त कराया जाय।

अब इस फैसले के दूसरे पहलू को देखते हैं। कदाचित यह संभव हो सकता है कि जिनके दावे खारिज किए गए हैं, उनमें कई ऐसे होंगे जो वाकई में आदिवासी नहीं हैं या फिर वे वनों पर आश्रित नहीं हैं। परंतु इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता है कि ऐसे लोगों में वे आदिवासी भी होंगे जो वाकई में आदिवासी हैं और वनों पर आश्रित हैं। इसकी वजह यह कि कौन आदिवासी है और कौन आदिवासी नहीं है, इसकी पहचान के सरकारी तरीके में दोष संभव है। यह बिल्कुल ऐसा ही है जैसे कि इस देश में कभी बीपीएल यानी गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करने वालों की पहचान की गई थी। परिणाम जब सामने आया तब यह पाया गया कि जो करोड़ों के मालिक हैं, उनके नाम भी गरीबों की सूची में शामिल हैं।

बहरहाल, वनाधिकार कानून 2006 को सख्ती से लागू तो किया ही जाना चाहिए लेकिन लागू करने की आड़ में आदिवासियाों को ही उनकी जमीन से बेदखल कर दिया जाय। हालांकि सुप्रीम कोर्ट को स्वयं अपने इस फैसले पर पुनर्विचार करनी चाहिए कि जिन दस लाख आदिवासी परिवारों को उसे बेदखल करने का फैसला सुनाया है, उनमें जो आदिवासी हैं, उन्हें उनके जल-जंगल-जमीन से बेदखल न किया जाय। और वे जो आदिवासी नहीं हैं लेकिन पीढ़ियों से जंगलों में रहते आए हैं, उनके बारे में भी कोर्ट और सरकार को मानवीय दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। आखिर वे भी इसी देश के नागरिक हैं।

~ डॉ मनाषा बांगर

राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, PPI
पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष बामसेफ

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