घर राज्य दिल्ली-एनसीआर #MeToo मूवमेंट मे क्या हम (# WeToo )समाविष्ट आहे? बहुजन महिलाओं का ब्राह्मण सवर्ण महिलाओं से यह सवाल!

#MeToo मूवमेंट मे क्या हम (# WeToo )समाविष्ट आहे? बहुजन महिलाओं का ब्राह्मण सवर्ण महिलाओं से यह सवाल!

अदलाबदल केली. किसी भी सामाजिक और समानता की लड़ाई के केंद्र में अगर बहुजन स्त्री नहीं तो वो लड़ाई जातीय और एलीट है। भारत के सन्दर्भ में देखे तो बहुजन स्त्रियाँ सवर्ण पुरुष, सवर्ण महिला और अपने वर्ग के पुरुष तीनों के द्वारा शोषण झेलती है, तो बहुजन स्त्री को ये पूरा #me_too इसी परिपेक्ष्य में देखना होगा। क्योंकि ये पूरा #me_too आन्दोलन स्त्रियों और उनके कार्य स्थल, घर के अंदर, सार्वजानिक स्थान पर होने वाले यौन शोषण के अनुभव पर है इसलिए सबसे पहले हमें ये समझना होगा शोषक वर्ग खासकर उस वर्ग की स्त्रियों (भारत में सवर्ण) का चरित्र, उनका व्यवहार शोषित वर्ग की स्त्री(बहुजन) के प्रति क्या रहा है।

1970 के दशक में अमेरिकी मैगजीन Ms. ने एक राष्ट्रीय पोल किया था स्त्री आन्दोलन और उनके मुद्दों पर, तो करीब 60% अश्वेत स्त्रियों ने इसका समर्थन किया था जबकि श्वेत स्त्रियों का प्रतिशत मात्र 30 था। श्वेत स्त्रियों की सोच में कहीं ज्यादा बदलाव नहीं आये है जिसको हम राष्ट्रपति चुनाव में देख सकते हैं जहाँ हिलेरी क्लिंटन को अश्वेत स्त्रियों ने कही ज्यादा वोट किया था जबकि श्वेत स्त्रियों ने ट्रम्प को. मतलब श्वेत स्त्रियों ने जेंडर की जगह रंग को प्राथमिकता दी थी, जबकि डोनाल्ड ट्रम्प का स्त्री विरोधी रवैया साफ था।

यही दृष्टिकोण भारत में मायावती को लेकर है, सवर्ण स्त्रियाँ उन्हें कभी स्त्री की तरह आइडेंटिफाई नहीं करती बल्कि उनकी पहचान सबसे पहले उनकी जाति से आती है और इनकी नफरत और हिकारत मायावती को लेकर वही है जो सवर्ण पुरुष की है।

ऐसा नहीं है जब हम स्त्री बोलते हैं तो वो समावेशी होता, एक समाज में शोषक वर्ग की स्त्री की पहचान ही बस स्त्री की होती है, बाकि स्त्रियों की पहचान उनके रंग, जाति से पहले जुड़ी होती है। इसका उदहारण ऐसे देखते है अमेरिका में कहने को स्त्रियों को वोट करने का अधिकार 1928 में ही मिल गया था पर अश्वेत स्त्रियाँ 1960 के दशक में जाकर वोट कर पाई थी। ऐसे ही भारत में जब डॉ अम्बेडकर हिन्दू कोड बिल लेकर आये थे तो सवर्ण स्त्रियों ने बढ़-चढ़ कर इसका विरोध किया था।

मंडल कमीशन के समय भी सवर्ण स्त्रियों ने इसका खूब विरोध किया था जबकि ये समाज की पिछड़ी स्त्रियों के प्रतिनिधत्व, उनके सशक्तिकरण के लिए बेहद आवश्यक था. अभी हाल में ही SC/ST को कमजोर करने, आरक्षण को कमजोर करने के कई बयान आये है लेकिन कोई सवर्ण स्त्री इसकी आलोचना करती नहीं दिखती जबकि ये सीधे सीधे दलित/पिछड़ी/आदिवासी स्त्री से जुड़ा मामला है।

इसी तरह वो जीशा, डेल्टा, आदिवासी स्त्रियों साथ हुई शारीरिक हिंसा की बात को वो उनके फोटो के साथ लिखती है, उसे शेयर भी करती है जो ये दिखाता है की बहुजन स्त्री की गरिमा की उन्हें जरा भी परवाह नहीं है, उल्टा ये बहुत मध्ययुगीन लगता है जब शोषित वर्ग के स्त्री-पुरुष के शरीर को प्रदर्शन के लिए चौराहे पर टांग दिया जाता था जिससे उस वर्ग में भय व्याप्त रहे, वही हम ‘निर्भयाका चेहरा तो क्या नाम भी नहीं जानते। ये एक प्रिविलेज है जो भारत में बस सवर्ण स्त्री को हासिल है, निर्भया सिंबल बन जाती बेनाम हो कर बलात्कार की लड़ाई के विरूद्ध जबकि वही बहुजन स्त्री जिसके साथ सदियों से ये हिंसा होती रही है वो कही दिखती भी नहीं।

क्या यौन हिंसा की कहानी बस #me_too जब से शुरू हुआ है तभी से है? सरकारी आकड़े बताते है हर दिन चार से ज्यादा बहुजन स्त्रियों के साथ बलात्कार होता है लेकिन ये कहानी/अनुभव कोई नहीं सुनता चाहता या नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।

#me_too आन्दोलन में अब तक जिन पर आरोप लगा है उनमें से अधिकांश मीडिया, बॉलीवुड और राजनीति से जुड़े हुए पुरुष है. आरोप लगाने महिलायें भी कमोबेश इन्ही फील्ड से जुड़ी हुई है. सबसे पहले इनसे पूछा जाना चाहिए की मीडिया और बॉलीवुड में बहुजनों का प्रतिनिधत्व नगण्य क्यों है ? इस से ज्यादा शोषण क्या होगा कि आप वहां पर अनुपस्थित हो। क्या ये बहुजन स्त्री का symbolic annihilation नहीं है।

यही मीडिया अखबारों, विज्ञापन, टीवी सीरियल और फिल्मों में स्त्रियों का चित्रण बहुत पतनशील तरीके से करता है जो घोर स्त्री विरोधी हैं जिसका विरोध ये कभी नहीं करती. फूलन देवी और भँवरी देवी दोनों ने अपने ऊपर फिल्म बनाने में सहमती नहीं दी थी (बैंडिट क्वीन, शेखर कपूर और बवंडर), फिर इनके साथ हुई हिंसा को फिल्माना क्या यौन उत्पीड़न नहीं है. जब हम इन फिल्मो को बार बार देखते है तो क्या हम उनपर फिर से वही हिंसा नहीं दोहराते है। क्या इस #me_too में इनकी आवाज है?

हम बस इन संस्थानों से ही गायब नहीं है, इन्होनें भंवरी देवी का नाम एक बार भी #me_too में नहीं लिया जिनके लम्बे संघर्ष के बाद विशाखा गाइडलाइन आई, और वो आज भी न्याय के लिए इन्तजार रही रही है. ये सावित्रीबाई फुले, फातिमा शेख का भी नाम नहीं लेती जिन्होंने इस देश में स्त्री शिक्षा की आधारशिला रखी. ये फूलन देवी को भी याद नहीं करती जो बलात्कार के खिलाफ लड़ाई की अल्टीमेट आइकॉन है. ये डॉ अम्बेडकर, ज्योतिबा फुले को भी नहीं जानती जिन्होंने स्त्री शिक्षा और उनके अधिकार के लिए लड़ाई लड़ी और उसे जमीन पर भी उतारा। इसकी वजह बस इतनी है क्यूंकि ये सारे नायक-नायिका बहुजन समाज से आते है।

और सबसे पहले सवर्ण स्त्री को इस बात का जवाब देना होगा की जाति-व्यवस्था का समर्थन और पोषण कैसे करती है, इस से पॉवर और प्रिविलेज का फायदा कैसे उठाती है जो व्यवस्था ही बहुजन स्त्री-पुरुष के शारीरिक दमन और शोषण पर आधारित है।

#me_too हमारे लिए दोधारी तलवार पर चलने जैसा है, क्यूँकी जहाँ हमारी आवाज नहीं सुनी जा रही, जहाँ हम उपस्थिति ही नहीं वो हमारे लिए कितना परिवर्तन लेकर आएगी और दूसरी जगह एक स्त्री का मुद्दा बहुजन स्त्री का होगा ही इसलिए हम इसे नकार भी नहीं सकते। लेकिन सवाल वही है क्या इस #me_too में #we_too है?

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