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Political - Politics - November 5, 2019

RCEP से किसान और व्यापारी दर्दनाक हालात में?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अंतरात्मा की सुनी और बैंकॉक में ऐलान कर दिया कि भारत दुनिया के सबसे बड़े व्यापार समूह का हिस्सा बनने को तैयार नहीं है . 16 देशों का ये समूह जिसे आरसीईपी RCEP के नाम से जाना जाता है. आसियान के 10 सदस्यों के अलावा इसमें एशिया प्रशांत इलाके के छह और बड़े देश शामिल होने थे. भारत, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड. भारत के इनकार के बाद अब ये 15 ही देश रहेंगे. उन्होंने भी ऐलान कर दिया है कि अब वो बिना भारत के ही आगे बढ़ रहे हैं. हालांकि अभी भारत के इस संगठन में शामिल होने के रास्ते बंद नहीं हुए हैं. अगले साल सारी औपचारिकताएं पूरी होने तक भी अगर शर्तों में बदलाव के साथ भारत राजी हो गया तो वो संगठन में शामिल हो सकेगा.

प्रधानमंत्री और सरकार की तरफ से लगातार ऐसे संकेत थे जिनसे लग रहा था कि भारत आरसीईपी यानी रीजनल कंप्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप का हिस्सा बनना चाहता है. यानी सरकार समझौते पर दस्तखत की तरफ बढ़ रही है. इसी चक्कर में तमाम विरोधी दल और मजदूर, किसान, व्यापारी संगठन जमकर विरोध में जुटे थे. विरोधियों का तर्क भी वही था जो अब सरकार ने सामने रखा है. किसानों और व्यापारियों देश के को भारी नुकसान का डर. ऐसे में पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस नेता जयराम रमेश के विचारों पर नजर डालना जरूरी है. उनका कहना है. कि इस वक्त समझौते पर दस्तखत करना कतई भारत के हित में नहीं है. इस हद तक कि उनका कहना है कि ये उद्योगों और किसानों की कमर तोड़ देगा, जो नोटबंदी और जीएसटी की गड़बड़ियों की वजह से पहले ही दर्दनाक हाल में है. लेकिन साथ ही वो ये भी कह रहे हैं कि हम हमेशा खुद को अलग-थलग नहीं रख सकते. हमें खुद को तैयार करना होगा. फायदे नुकसान का हिसाब लगाना होगा और नुकसान को कम से कम करने का इंतजाम करना होगा. ये मानने के पर्याप्त कारण हैं कि प्रधानमंत्री मोदी इतना दबाव बना आए हैं. तभी 15 देशों के साझा बयान में ये कहा गया है. कि भारत के लिए रास्ते अभी खुले हैं .और सभी आशंकाएं दूर करने की कोशिश भी जारी है.

लेकिन ये सिक्के का सिर्फ एक पहलू है. और सच कहें तो यहां कोई सिक्का भी नहीं है, जिसकी एक तरफ जीत और दूसरी तरफ हार हो. हरि अनंत हरि कथा अनंता. अंतरराष्ट्रीय व्यापार, कूटनीति और घरेलू राजनीति को एक साथ साधने का प्रयास ऐसी ही किसी कथा को लिखने की कोशिश है. यहां घरेलू उद्योग, किसान, कामगार को बचाना है लेकिन साथ ही अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में अपना माल बेचने का मौका भी नहीे गंवाना है. लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि अगर आज किसान, मज़दूर और कामगारों के हितों के नाम पर भारत इस बड़ी साझेदारी से पीछे हट रहा है. तो इन तबकों को मजबूत और मुकाबले के लायक बनाने के लिए उसके पास क्या योजना है. आज सवाल पूछना जल्दबाजी लग सकती है. लेकिन इस सवाल का जवाब तो चाहिए कि किसानों की आमदनी दोगुनी करने के वादे के साथ सत्ता में आई सरकार ने अब तक किसानों की उपज का दाम कितना बढ़ा दिया. और इस देश में जहां सारी चुनावी राजनीति प्याज और चीनी की महंगाई पर सिमट जाती है. प्याज का दाम बढ़ते ही सरकारों को बुखार आने लगता है. वहां ये उम्मीद कैसे और किससे की जाए कि वो किसानों को उपज का सही दाम दिलवा देगा.

ऐसी ही दूसरी बड़ी चिंता. ज्यादातर जानकारों का कहना है कि इस वक्त यानी आर्थिक मंदी के बीच अगर ये समझौता हो गया तो चीन का माल भारत के बाजारों में पट जाएगा और घरेलू उद्योग धंधों की कमर टूट जाएगी. उनका कहना है कि पहले ही भारत चीन के साथ जो व्यापार करता है उसमें हमें 60 अरब डॉलर का सालाना घाटा होने लगा है. उनका और आरसीईपी के सारे देश जोड़ लें तो ये घाटा 105 अरब डॉलर तक पहुंच जाता है. ये भारत के कुल व्यापार घाटे का 65 फीसदी हिस्सा होता है. तो अब ये कौन बताएगा कि ये मंदी टूटेगी कैसे, क्या एक्सपोर्ट के बिना सिर्फ भारत में इतना माल बिकने लगेगा कि आर्थिक विकास फुल स्पीड पर आ जाए? और अगर एक्सपोर्ट होना है. तो इतने बड़े समूह से दूर रहना कितनी समझदारी है.

इसी तरह की एक चिंता है कि न्यूज़ीलैंड बड़े पैमाने पर डेरी प्रोडक्ट भारत के बाज़ारों में झोंक देगा. 50 लाख से कम आबादी वाला देश है. 50 हज़ार करोड़ डॉलर की जीडीपी का 10 परसेंट डेरी सेक्टर से आता है. क्या हम अपने देश में गाय भैंस पालने वालों को इस हाल में ला सकते हैं. कि वो इस इंडस्ट्री से मुकाबला कर सकें. या दरवाज़े बंद करके बैठना ही एक उपाय है. और लाखों गायें देशभर में आवारा घूम रही हैं. जिन इलाकों में घूम रही हैं वहां के विधायकों सांसदों और मंत्रियों से पूछिए RCEP का मतलब जानते हैं? ऐसे में किस भरोसे ये उम्मीद की जाए कि समझौते पर दस्तखत करने के लिए ये सही वक्त नहीं है?कब आएगा वो सही वक्त, और कौन लाएगा?

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