Home Social Politics आरएसएस की जीत नहीं है यह, इत्मीनान के साथ पूर्वाग्रह से मुक्त होकर पढिए क्यों?
Politics - May 24, 2019

आरएसएस की जीत नहीं है यह, इत्मीनान के साथ पूर्वाग्रह से मुक्त होकर पढिए क्यों?

~ नवल किशोर कुमार ~

यह किसकी जीत है? आप में कई कहेंगे कि यह आरएसएस की जीत है। कई यह भी कहेंगे कि यह नरेंद्र मोदी की जीत है। लेकिन यह जीत न तो आरएसएस की है और न ही नरेंद्र मोदी की। क्रिस्टोफर जैफरलोट ने इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित अपने आज के लेख में इस सवाल का जवाब तो नहीं दिया है लेकिन उन्होंने उन कारणों की व्याख्या अवश्य की है जिसके कारण भाजपा गठबंधन को पूरे देश में अपेक्षा से अधिक सफलता मिली। उनके कारणों में हिंदू राष्ट्रवाद, हिंदुत्व और राष्ट्रीय सुरक्षा शामिल हैं।

लेकिन मुझे लगता है कि क्रिस्टोफर जैफरलोट न तो भारत को समझते हैं और न ही इंडिया को। इस बारे में आगे चर्चा करता हूं। पहले तो न तो संघ की जीत है और न ही नरेंद्र मोदी को यह बंपर जीत मिली है।

यह जीत भारत की जनता को मिली है जो जाति और गोत्र के सवाल पर बंटी पड़ी है। बिल्कुल कबीलाई फार्मेट में। मनुवादी चार वर्णी व्यवस्था सशक्त हुई है। सवर्ण अब भारत में फिर से हावी हो गए हैं। नरेंद्र मोदी ने उन्हें आर्थिक आधार पर दस फीसदी का आरक्षण देकर सशक्त बनाया है। सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से वे पहले से ही सशक्त थे।

मुझे आश्चर्य हो रहा है जब कई लोगों को यह कहते हुए देख रहा हूं कि भाजपा ने पश्चिम बंगाल में हिंदुत्व के सहारे ममता बनर्जी के गढ़ में सेंधमारी कर ली है। लेकिन यह सच है कि बंगाल बहुत पहले से ही हिंदूवादी रहे हैं। दुर्गा की उपासना का केंद्र बंगाल ही रहा है। भारत माता की जय भले ही आज आरएसएस के लोग बोल रहे हैं, सबसे पहले भारत माता की तस्वीर बंगाल में ही सामने आयी थी। वंदे मातरम भी बंगालियों की देन है। जाहिर तौर पर वे सभी सवर्ण ही थे। आज नरेंद्र मोदी को जो सफलता मिली है, वह दरअसर सवर्णों की जीत है।

वैसे यह जीत केवल सवर्णों की भी नहीं है। यह जीत उनकी भी है जिनके बारे में लोहिया कहा करते थे। पिछड़ा पावे सौ में साठ। आपने सही पकड़ा। पिछड़ा वर्ग। भारतीय समाज का वह तबका जो न तो दलित है, न आदिवासी और न ही सवर्ण। इस वर्ग को भारतीय संविधान में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा वर्ग कहा गया है।

सामाजिक रूप से पिछड़ा होने का मतलब यह कि इस वर्ग के लोग अछूत नहीं हैं लेकिन सम्मान पाने के पात्र भी नहीं हैं। यह वर्ग श्रमिकों का है। वह श्रमिक किसान है, गाय-भैंस, भेड़-बकरियां चराता है, बढ़ई-कुम्हार है, पालकियां ढोनेवाला कहार है। चूंकि यह वर्ग शैक्षणिक रूप से आज भी इस कदर पिछड़ा है कि तय नहीं कर पा रहा है कि उसे करना क्या है और उसका दुश्मन कौन है। कौन उसके अधिकारों को एक-एककर छीन रहा है, वह यह भी समझने की स्थिति में नहीं है। यह वर्ग दलितों के जैसा समझदार भी नहीं है। इसलिए आजतक न तो उसका कोई साहित्य है और संस्कृति का मामला ऐसा है कि वह न तो पूर्ण रूप से हिंदू है और न ही किसी और धर्म का।

लेकिन आज के पिछड़ा वर्ग के पास सत्ता में हिस्सेदार होने का सपना है। संघ द्वारा नरेंद्र मोदी को मुखौटा बनाने के पीछे यही सोच रही है। भारतीय समाज में साठ फीसदी वाले इस आबादी को नजर अंदाज कर संघ कभी अपने इरादों में सफल नहीं हो सकता। जिस पिछड़ा के बारे में लोहिया कहा करते थे, उसे उनके अनुयायियों ने ही कई खंडों में बांट दिया है। पिछड़ा से अति पिछड़ा और अब अत्यंत पिछड़ा। इसमें अपर ओबीसी आज भी सबसे अधिक मलाई खाता है। मलाई शब्द सुप्रीम कोर्ट का है। 1993 में उसने आरक्षण के मामले में क्रीमीलेयर शब्द का इस्तेमाल किया था। इस प्रकार ओबीसी का एक और विभाजन हुआ। वह भी सुप्रीम कोर्ट के द्वारा। क्रीमी ओबीसी और बगैर क्रीम वाला ओबीसी। कितना हास्यास्पद है न? समय के साथ ओबीसी और इसके अपने अंदर के वर्गों के बीच दूरियां बढ़ती जा रही हैं। बिहार में नीतीश कुमार ने बांटो और राज करो की नीति को सफलतापूर्वक अंजाम दिया है। इस बार बिहार में अति पिछड़ा वर्ग को 7 सीटें मिली हैं। आने वाले समय में अति पिछड़ा वर्ग सत्ता के शीर्ष पर होगा। इस बार के लोकसभा चुनाव का एक संदेशा यह भी है। जाहिर तौर पर यह पिछड़ा वर्ग की हार और अत्यंत पिछड़ा वर्ग की जीत है।

यह जीत दलितों की भी है। वे मनुवादियों के खिलाफ भी हैं और उनके आसरे भी। ये सबसे चालाक हैं बिल्कुल ब्राह्मणों के जैसे। उदाहरण के लिए नाम गिनाने की जरूरत नहीं है। कईयों के पैरों से तले जमीन खिसक जाएगी जब यह जानकारी सामने आएगी कि आंबेडकर के नाम का मंत्रोच्चारण करते-करते वे अब जय श्री राम करने लगे हैं। वे पिछड़ों को अपना दुश्मन और सवर्णों को हितैषी समझते हैं। उनकी यह सोच बेजा भी नहीं है। अपर ओबीसी की जातियों मसलन कुर्मी, कोईरी और यादवों ने उनके उपर उतने ही अत्याचार किए हैं जितने कि सवर्णों ने।

हां, यह जीत आदिवासियों की नहीं है। यह उनकी हार है। उनके जल-जंगल-जमीन पहले ही छीने जा चुके हैं। आदिवासी सबसे लाचार हैं। फिर चाहे वे भाजपा को वोट दें या फिसी और को। वे यह समझते हैं कि उनका लूटा जाना तय है।

 

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