जंगल और ज़मीन बचाने की लड़ाई लड़ रहें आदिवासियों का संघर्ष!
आदिवासियों की पहचान जल, जंगल और ज़मीन से ज़रूर है. लेकिन प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन के कारण उन्हें इन दिनों अपने मूल स्थान से विस्थापित होना प़ड रहा है. हालांकि वे अपने अधिकारों के लिए आवाज़ बुलंद कर रहे हैं, लेकिन अफ़सोस कि उनकी आवाज़ नक्कारख़ाने में तूती की आवाज़ ही साबित हो रही है. विकास के नाम पर विगत कई वर्षों से झारखंड के आदिवासी विस्थापन का दर्द बहुत झेल रहे है वही छत्तीसगढ़ के उत्तरी भाग में करीब एक लाख सत्तर हजार हेक्टेयर में फैले हसदेव अरण्य के वन क्षेत्र में जंगलों पर उजड़ने का खतरा मंडरा रहा है. इन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों ने जंगलों को बचाने के लिए मोर्चा संभाल लिया है. दरअसल इस पूरे वनक्षेत्र में कोयले का अकूत भंडार छुपा हुआ है और यही इन जंगलों पर छाए संकट का कारण भी है. पूरे इलाके में कुल 20 कोल ब्लॉक चिह्नित हैं. जिसमें से 6 ब्लॉक में खदानों के खोले जाने की प्रक्रिया जारी है.

इन परियोजनाओं में करीब एक हजार आठ सौ बासठ हेक्टेयर निजी और शासकीय भूमि सहित सात हजार सात सौ तीस हेक्टेयर वनभूमि का भी अधिग्रहण होना है. खदानों की स्वीकृति प्रक्रियाओं से गांव वाले हैरान हैं और इसके विरोध में खुलकर सामने आ गए हैं. प्रभावित क्षेत्र के सैकड़ों आदिवासी व अन्य ग्रामीण लामबंद होते हुए विगत 30 दिनों से अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे हुए हैं.मालूम हो कि यूपीए सरकार के कार्यकाल के दौरान पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के तत्कालीन मंत्री जयराम रमेश द्वारा साल 2009 में हसदेव अरण्य क्षेत्र को नो गो क्षेत्र घोषित किया गया था. हालांकि साल 2011 में परसा ईस्ट केते बासेन और तारा कोल ब्लॉक में खनन की अनुमति यह कहते हुए दी कि ये बाहरी भाग में हैं और इनमें खनन परियोजनाओं से जैव विविधता को ज्यादा असर नहीं पड़ेगा. पर इसके बाद किसी भी अन्य परियोजना को अनुमति नहीं दी जा सकती.

सरकारों के रुख को देखते हुए ग्रामीणों ने भी संघर्ष का मूड बना लिया है. हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति के बैनर तले धरना की शुरुआत कर दी है. वर्तमान में इस आंदोलन में गांवों के सैकड़ों आदिवासी व अन्य ग्रामीण सैकड़ों की संख्या में प्रतिदिन शामिल हो रहे हैं. धरने में शामिल लोगों का कहना है कि पूरा इलाका सघन वनों से भरपूर है. यही क्षेत्र हसदेव बांगो (मिनीमाता बांगो बांध) का कैचमेंट एरिया है. खदानों के खुलने से हसदेव व चोरनई नदियों का अस्तित्व संकट में आ जाएगा, जिससे बांध पर भी सूखे का संकट आ जाएगा. जबकि इसी बांध के पानी से ही करीब चार लाख तिरेपन हजार हेक्टेयर खेती की जमीन सिंचित होती है. साथ ही, इस इलाके के जंगल हाथी, भालू, हिरण और अन्य दुर्लभ वन्य जीवों के प्राकृतिक निवास हैं. खदानों से इनके अस्तित्व पर भी संकट आ जाएगा. प्रदर्शन में आई आदि महिलाओं ने बताया कि जन्म से लेकर मृत्यु तक के हमारे संस्कार प्रकृति से जुड़े हैं. नदियां, पहाड़, पेड़-पौधे इनसे ही हमारी जिंदगी जुड़ी है, हम इन्हें उजड़ने नहीं देंगे.उनका कहना है कि खदान खुलने से हजारों आदिवासियों समेत अन्य परिवारों को विस्थापित होकर बेघर होना पड़ेगा. जिससे गांव के बिखरने के साथ ही प्राचीन आदिवासी संस्कृति भी विलुप्त हो जाएगी.

आदिवासी गांव वालों का ये भी कहना है कि ‘तरह-तरह के हथकंडे अपनाकर हमें अपने गांव और जमीन से बेदखल करने का षड्यंत्र किया जा रहा है. खदानों का विरोध करने वालों को कई तरह से प्रताड़ित किया जाता है. मैंने भी इस परियोजना की पर्यावरणीय स्वीकृति के लिए ग्राम बासेन में आयोजित जनसुनवाई के दौरान खदान खोलने का विरोध किया था. अदानी कंपनी के लोग बार-बार मुझे खदान का विरोध न करने और ग्राम सभा में सहमति का प्रस्ताव पारित करवाने का दबाव बनाते रहे, पर मैंने मना कर दिया. तब कंपनी के इशारे पर मेरे ऊपर जमीन का फर्जी पट्टा बनवाने का आरोप लगाते हुए कूटरचित आवेदन के आधार पर उदयपुर थाने मे एफआईआर दर्ज करवाया गया. उस मामले में मुझे और मेरी पत्नी को 45 दिनों तक जेल में रहना पड़ा.

वही आंदोलनकारियों ने हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति के माध्यम से प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को पत्र लिखकर गैरकानूनी तरीकों और फर्जी ग्राम सभा प्रस्तावों से हो रही खदानों की अनुमति निरस्त करने की मांग की है. वहीं उधर आदिवासी महासभा बस्तर संभाग ने भी छत्तीसगढ़ के राज्यपाल को आंदोलन की मांगों के समर्थन में अल्टीमेटम देते हुए पत्र लिखा है.देखा जाए. तो जंगल केवल आदिवासियों की ही नहीं, बल्कि हम शहरों में रहने वालों के लिए भी आवश्यक हैं. यदि समय रहते इस ओर ध्यान नहीं दिया गया. तो न स़िर्फ आदिवासी संस्कृति को नुक़सान होगा. बल्कि आने वाले वर्षों में किसी प्राकृतिक महाआपदा को झेलने के लिए हमें तैयार रहना होगा.
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