खेल जगत में पनपता ब्राह्मणवाद
By: Nikhil Ramteke
पिछले एक महीने से खेल जगत में भारी चहलकदमी शुरू है। पहले आईपीएल फिर फुटबॉल विश्वकप, विंबल्डन और अब हाल ही में विश्व अंडर-20 एथलेटीक्स। 2020 में टोकियो ओलंपिक्स भी है। लेकिन खेल जगत में क्रिकेट को छोड़ दिया जाए तो बाकी खेलों में भारत दुनिया में निचले पायदान पर है। हाल ही में संसद की स्थायी समिति ने खिलाड़ियों पर हो रहें खर्च के आंकड़े पेश कीये हैं। भारत एक दिन में अपने खिलाड़ीयों पर केवल 3 पैसे खर्च करता है। जबकी भारत से भी पिछड़ा देश जमैका अपने खिलाड़ियों पर 19 पैसे प्रतिदिन खर्च करता है। सवाल यह है कि क्या सिर्फ पैसों की कमी की वजह से खिलाड़ी उभर नहीं पाते हैं या और कुछ है जो उन्हें उभरने नहीं देता?
क्रिकेट इलिटों का खेल माना जाता है। क्योंकि मैं मानता हूं यह बहुत सुस्त खेल है। एक जगह पर खड़ा हो कर बैट्समैन बैटिंग करता है। थोड़ी दूर दौड़कर बॉलर बॉलिंग करता है। और जब तक बॉल किसी फिल्डर के पास नहीं पहुंचती तब तक फिल्डर उसे पकड़ने के लिए नहीं दौड़ता। इसका अंदाजा क्रिकेट खिलाड़ियों के भारी भरकम शरीर और तोंद से लगाया जा सकता है। मतलब की बिना शारिरिक कसरत के यह खेल खेला जाता है। उसी तरह इसे विश्व स्तर पर खेलने वालों में ज्यादातर अपर कास्ट के लोग ही है। जाहिर है उन्हें ज्यादा मेहनत करने की आदत नहीं होती।
भारत में क्रिकेट का संचालन बीसीसीआई नाम का बोर्ड करता है। वैश्विक स्तर पर यह बोर्ड सबसे अमीर बोर्डों में पहले पायदान पर शुमार है। भारत समेत विश्व के केवल 11 देश ही क्रिकेट खेलते हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि क्रिकेट खेलने वाले खिलाड़ी देश के लिए नहीं बल्कि बीसीसीआई के लिए खेलते हैं। क्योंकि कौन, कब और कैसे क्रिकेट खेलेगा यह निर्धारित करने का अधिकार केवल बीसीसीआई को ही है। बात करते हैं क्रिकेट में बहुजन समाज के प्रतिनिधत्त्व की।
भारत में 85% बहुजन समाज होने बावजूद क्रिकेट में उनकी संख्या नदारद है। विनोद काम्बली के बाद भारत में एक भी नाम नहीं उभरा जो बहुजन समाज से आता है। इस पर रामचद्र गुहा कहते है कि बहुजन समाज के लोग खेलों को अपना पेशा नहीं बनाना चाहते। उस से हटकर वे नौकरी करना पसंद करते हैं। लेकिन यह सरासर गलत है। देश की स्वतंत्रता से पहले पलवनकर बालू ने क्रिकेट जगत में बहुजन समाज का प्रतिनिधत्त्व किया था। उन दिनों बालू क्रिकेट जगत में सबसे होनहार और सफल खिलाड़ियों में शामिल थे। डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने उन्हें प्रेरणास्त्रोत भी कहा था।
आप में से लगभग सभी ने बचपन में यह जरूर अनुभव किया होगा कि क्रिकेट खेलते समय जिसकी बैट होती थी वही हमेशा बैटिंग करता था। उसकी बैटिंग खत्म होने के बाद अक्सर बीच में ही मैच छोड़कर वह भाग जाता था। और हम कुछ नहीं कर सकते थे। एक दिन बालू अपने बेटे को क्रिकेट न खेलने की सलाह दे रहे थे। इसलिए नहीं कि वह नौकरी को अपना पेशा बनाए। बल्की उन्होंने उसे कहा था, तुम चाहे कितनी ही बार बॉलिंग कर लो, तुम्हे बैटिंग करने का मौका नहीं दिया जाएगा।
भारतीय क्रिकेट के इतिहास में विनोद कांम्बली को छोड़ कर अब तक किसी भी बहुजन समाज के खिलाड़ी को बैटिंग का मौका नहीं मिला है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि क्रिकेट को बहुजन समाज के लोगो नें पेशा बना भी लिया तो उन्हें टीम का प्रतिनिधत्त्व करने का मौका नहीं दिया जाएगा।
क्रिकेट जैसे बड़े खेलों में बहुजन समाज को कम मौका मिलता है। लेकिन जिस किसी भी खेल में उन्हें मौका मिलता है अक्सर वह खेल भारत में क्रिकेट जितना प्रसिद्ध नहीं होता। या उसपर भारत सरकार कम ध्यान देती है। पिछले पूरे महीने से विश्व पर फुटबॉल फिवर चढा हुआ है। भारत भी उस से अछुता नहीं है। विश्व के लगभग 32 देश इस साल फिफा खेल रहे हैं। भारत उन देशों में कही भी नहीं है। हांलाकी भारत 2018 का इंटरकॉन्टीनेंटल कप खेल चुका है।
100 से 130 यार्ड में लगभग 90 मिनट खिलाड़ी गोल करने के लिए दौडते रहते है। शायद अपर कास्ट सोसायटी इतना परिश्रम नहीं कर सकती। वरना बड़ी मात्रा में डॉलर कमाने का मौका वे कभी नहीं छोड़ते। शायद इसलिए बीसीसीआई जैसा कोई बोर्ड बनाने में वे लोग नाकाम रहे। आज भी देश के ऐसे कई इलाके है जहां क्रिकेट की जगह फुटबॉल खेला जाता है। पर खेलने वाले लोग पिछड़े तबके से आते हैं। इसका एक मुख्य कारण यह भी हो सकता है कि बैट-बॉल खरीदने के लिए उनके पास पैसे न हो। एक बॉल खरीदने में भला किसे दिक्कत हो सकती है?
विश्व के शीर्ष खिलाड़ियों में शुमार क्रिस्टिआनो रोनाल्डो पिछड़े समाज से आते हैं। ‘मदर करेज’ नामक उनके चरित्र में बताया है कि उनके पिता म्युनसिपल कार्पोरेशन में गार्डनर का काम करते थे। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि तमाम मेहनत के खेल पिछड़े समाज द्वारा बहुत आसानी से खेले जाते हैं। अगर यकीन न हो तो दुनिया का सबसे पिछड़ा देश जमैका के खिलाड़ियों को ही गूगल कर के देख लें।
वर्ल्ड इकोनोमिक फोरम के मुताबिक विश्व की इकोनोमिक रैंक में भारत सातवें पायदान पर है। जबकि फिफा वर्ल्डकप फाईनल में पहुंच चुकी क्रोएशिया 78 वें पायदान पर है। फिर ऐसी क्या बात है कि भारत का नाम फुटबॉल में अब तक नहीं चमका है? हांलाकि ओलंपिक में भारत को सबसे ज्यादा सवर्ण पदक हॉकी के बदौलत मिले है। देसी खेल होने के बावजूद भारत में हॉकी को क्रिकेट जैसा स्थान क्यों नहीं मिल पाया है? क्या इसके पीछे की वजह बहुजन समाज द्वारा इन खेलों को खेला जाना है? या फिर आज भी तथाकथित अपर क्लास पिछड़े समाज को अपने उपर हावी नहीं होने देना चाहता?
हाल ही में विश्व अंडर-20 एथलेटीक्स खेलों में हीमा दास ने स्वर्ण पदक जीता है। वह भी बहुजन समाज से आती है। अगर वह अपर कास्ट सोसायटी से आती तो शायद ढेरों तरीकों से उसे पुरस्कृत किया जाता। 400 मीटर की रेस जीतने के बाद अपना पुरा श्रेय देश को समर्पित किया है। शायद इसी से तथाकथित अपर क्लास को डर लगता है। इस वजह से इन खेलों पर वे केवल 3 पैसे प्रतिदिन खर्च करना चाहते हैं। क्रिकेट पर बड़े-बड़े जुए खेले जाने के बावजूद वह देश की शान बना हुआ है। सरकार को अब बहुजनों को भी मौका देना चाहिए। बहुत पोटेंशियल है इस समाज में।
-Nikhil Ramteke
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