ओबीसी आयोग : संवैधानिक अधिकार के नाम पर मिला झुनझुना
By- संतोष यादव
संसद में यह कानून पारित हो चुका है कि राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को अनुसूचित जाति अायोग और अनुसूचित जनजाति आयोग के जैसे ही संवैधानिक अधिकार मिले। यानि यह एक मुकम्मल आयोग बने जिसके पास दांत और नाखून दोनों हों। केंद्रीय मंत्री थावरचंद गहलोत ने भी यही कहा जब वे इस कानून को संसद में पेश कर रहे थे। लेकिन अब कानून का जो स्वरूप सामने आया है वह महज ओबीसी को ठगने के लिए झुनझुना से अधिक कुछ भी नहीं है।
इस बारे में सामाजिक न्याय को लेकर पिछले 7 दशकों से सक्रिय भारत सरकार के पूर्व नौकरशाह पीएस कृष्णन ने सवाल उठाया है। उनका कहना है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने जो नया कानून बनाया है वह सुप्रीम कोर्ट में टिक नहीं पाएगा। दरअसल वह इशारा कर रहे हैं उस प्रावधान को लेकर जिसके बारे में यह कहा जा रहा है कि नये कानून के बाद आयोग को संवैधानिक अधिकार मिल जाएंगे।
सच्चाई यह है कि केंद्र सरकार ने जो किया है वह अपने आप में हास्यास्पद है। केंद्र सरकार के नए कानून के मुताबिक राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग अब अपनी तरफ से किसी भी जाति को ओबीसी की श्रेणी में ना तो शामिल करने के लिए और ना ही उसे बाहर निकालने के लिए कोई अनुशंसा तब तक नहीं कर सकेगा जब तक कि भारत सरकार ऐसा खुद नहीं चाहेगी। यानी संवैधानिक शक्तियों से लैस आयोग के पास इसकी आजादी नहीं होगी। पहले राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग को यह आजादी हासिल थी। हालांकि केंद्र सरकार उसे मानने को बाध्य नहीं था।
वैसे यह केवल जातियों को ओबीसी की सूची में शामिल करने अथवा बाहर निकालने तक सीमित नहीं है।
फर्ज करें कि ओबीसी से जुड़े लोगों पर कोई अत्याचार हो जैसे कि बिहार के मियांपुर में दो दर्जन से अधिक यादवों की हत्या भूमिहारों की रणवीर सेना ने कर दी थी। ऐसी परिस्थिति में आयोग क्या राज्य सरकार को कोई एक्शन लेने के लिए दबाव बना सकेगा?
इसका जवाब नहीं है। नये कानून में इसका कोई प्रावधान ही नहीं है।
अब एक दूसरा उदाहरण देखिए। यदि किसी राज्य में ओबीसी को तय आरक्षण से कम लाभ मिल रहा हो तब आयोग कोई कार्रवाई कर सकेगा? इसका जवाब भी नकारात्मक है। बल्कि नये कानून में तो यह साफ कर दिया गया है कि नये आयोग के पास राज्यों के मामले में दखल देने का कोई अधिकार नहीं होगा।
देश के कई हिस्सों में आरक्षण के सवाल जस के तस पड़े हैं। बैकलॉग की बढ़ती समस्या पर भी पहले आयोग विचार नहीं कर पाता था। अब नये आयोग के पास भी विचार करने का अधिकार नहीं होगा।
चलिए पूरे घटनाक्रम पर नजर डालें। केंद्र सरकार ने 2017 में अहम पहल किया। सरकार ने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को भंग कर दिया और साथ ही घाेषणा कर दी कि अब नये आयोग को संवैधानिक दर्जा मिलेगा। लेकिन साथ ही सरकार ने ओबीसी के उपवर्गीकरण के लिए जस्टिस रोहिणी कमीशन का गठन भी कर दिया। केंद्र सरकार के मुताबिक ओबीसी आरक्षण का लाभ उन्हें अधिक मिलना चाहिए जो ओबीसी में शामिल तो हैं लेकिन विकास के मामले में सबसे निचले पायदान पर हैं। हालांकि इसे ओबीसी में फूट डालने की रणनीति करार दिया गया। लेकिन किसी ने खुलकर विरोध नहीं किया। विरोध नहीं होने की वजह यह रही कि सामाजिक न्याय की परिभाषा ही यही है। सबसे अधिक वंचितों को सबसे पहले अधिकार मिले।
लेकिन जस्टिस रोहिणी आयोग की रिपोर्ट की अनुशंसाओं का इंतजार किये बगैर सरकार ने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा मिलने के बाबत 123वें संशोधन विधेयक को प्रस्तुत कर दिया और इसे संसद को दोनों सदनों में पारित कर दिया गया।
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने 14 अगस्त, 2018 को राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग अधिसूचित कर दिया और इसकी अधिसूचना गजट ऑफ इंडिया के माध्यम से सार्वजनिक कर दिया गया। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग अधिनियम 1993 की जगह राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग अधिनियम 2018 प्रभावी हो गया है।
एकबार फिर बात करते हैं कि नये आयोग संवैधानिक अधिकार मि्लने का मतलब क्या है। नये कानून के अनुसार आयोग परामर्शी कार्यों के अलावा पिछड़े वर्गों की सामाजिक व आर्थिक प्रगति में भागीदारी की पहल करेगा। पिछड़ी जातियों को राज्यों की सूचियों में शामिल करने के काम में राष्ट्रीय आयोग की कोई भूमिका नहीं होगी। यह काम राज्य सरकारें करेंगी। केवल उन्हीं मामलों में राष्ट्रीय आयोग की भूमिका होगी, जिनमें राज्य द्वारा किसी जाति को केन्द्रीय सूची में शामिल करने की सिफारिश की जाएगी। राज्यों की सिफारिश पर भारत के महापंजीयक की रिपोर्ट ली जाएगी और उसकी स्वीकृति के बाद आयोग की स्वीकृत ली जाएगी।
सवाल उठता है कि फिर ऐसे आयोग कि औचित्य क्या होगा? क्या केंद्र सरकार इस देश के ओबीसी को बेवकूफ समझ रही है। यदि इसका उत्तर सकारात्मक है तो उसे इसका परिणाम झेलना पड़ेगा। ओबीसी अब अपने अधिकारों को लेकर सजग हो चुका है। इसका सबूत भी आनेवाले लोकसभा चुनाव में मिल जाएगा।
~ संतोष यादव
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