फेसबुक की कारास्तानी- फ़ेसबुक, मीडिया और संघ-भाजपा का गठजोड़
फेसबुक की कारास्तानी- फ़ेसबुक, मीडिया और संघ-भाजपा का गठजोड़
सारे पतनशील तत्व एकजुट हो गए हैं, प्रगतिशील बहुजन तत्वों को भी एकजुट होना ही होगा
वालस्ट्रीट जर्नल की रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद यह तथ्य स्पष्ट हो गया है, भारत में हिंदू कट्टरपंथ को को प्रचारित-प्रसारित करने, मुसलमानों एवं अन्य के खिलाफ घृणा फैलाने संघ-भाजपा को मदद पहुंचाने( चुनावों में जीताने) में फेसबुक ने सचेत तरीके से और जानबूझकर खूब मदद पहुंचायी है।
दूसरे समुदाय के प्रति घृणा आधारित पोस्टों को चेक करने और उन्हें ब्लाक करने की खुद की नीति के खिलाफ जाकर फेसबुक ने संघ-भाजप और उनके आईटी सेल की घृणा आधारित पोस्टों को रोकने को कौन कहे, उसे बढ़ाया दिया।
यह स्पष्ट हो चुका है कि यह सबकुछ जानबूझकर किया गया है और फेसबुक का साफ तौर पर निर्देश था कि संघ-भाजपा के घृणा आधारित इन पोस्टों को रोका न जाए,क्योंकि ऐसा करने से केंद्र सरकार नाराज हो सकती है।
फेसबुक की इंडिया की हेड़ का भाजपा और विशेषकर प्रधानमंत्री से गहरे रिश्ते भी जगजाहिर हो चुके हैं
अब फेसबुक ( वाट्सअप का मालिक है) मालिक मार्क जुकबर्ग और मुकेश अंबानी का सीधा आर्थिक गठजोड़ हो चुका है।
फेसबुक के मालिक मार्क जुकर्बग, मुकेश अंबानी ( कई सारे चैनलों के मालिक हैं) और संघ-भाजपा( मोदी) का गठजोड़ करीब-करीब देश के मीडिया तंत्र और सूचनातंत्र पर भी पूरी तरह नियंत्रण कर चुके है। अन्य संस्थाएं तो उनके कब्जे में हैं, ही।
जिस सोशल मीडिया को हम अपना समझते हैं,वह मनुष्यता के दुश्मन मुनाफाखोर गिद्धों ( जुकर्बग आदि)और सत्ता की हवस के शिकार नेताओं – पार्टियों के गठजोड़ के नियंत्रण में है।
सच यह है कि मुनाफाखोर मार्क जुकबर्ग, मुकेश अंबानी और किसी कीमत पर सत्ता की चाह रखने वाले मोदी जैसे लोगों का देश ही नहीं दुनिया पर नियंत्रण है, कहीं मोदी हैं तो कहीं ट्रंप, कहीं कोई और।
वैकल्पिक रणनीतियों और माध्यमों की खोज करनी होगी और मानवता के दुश्मन इस गठजोड़ के गिरफ़्त से बाहर निकलने का रास्ता तलाश करना होगा।
वैकल्पिक रास्ता व्यापक जन के साथ प्रत्यक्ष रिश्ता बनाकर ही विकसित किया जा सकता है, एकमात्र व्यापक जन का गठजोड़ ही देश-दुनिया को दुश्मनों को धूल चटा सकता है।
दुनिया भर की जन क्रांतियां इसका सबूत पेश करती हैं।
नोट- यदि इस पोस्ट के बाद फेसबुक ने ब्लाक किया , तो फेसबुक छोड़ दूंगा।
यह लेख वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ रामू के निजी विचार है ।
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