संत कबीर : अपने दोहों से जातिवाद, पाखंडवाद और ब्राह्मणवाद की खोलतें थे पोल
ब्राह्मणवाद के खिलाफ अपनी लेखनी से विद्रोह करने वाले महान संत कबीर दास जी की वाणी आज भी जातिवाद और भेदभाव के खिलाफ संघर्ष का रास्ता दिखाती है। बहुजन परंपरा में कबीर जैसे महानायकों का जीवन हम सबके लिए एक प्रेरणा है, बहुजन नायक कबीर के कई ऐसे दोहे जो ना सिर्फ जातिवाद, पाखंडवाद और ब्राह्मणवाद की मुखालफत करते हैं बल्कि हमें अन्याय के ख़िलाफ़ संघर्ष करने की प्रेरणा देते हैं।
कबीर दास जयंती भारत के प्रसिद्ध कवि, संत और समाज सुधारक – संत कबीरदास की जयंती का प्रतीक है। कबीर भारतीय मंशा के प्रथम विद्रोही संत रहे हैं, उनका विद्रोह अंधविश्वास और अंधश्रद्धा के विरोध में हमेशा मुखर रहा है।

कबीर के जन्म के समय समाज ऐसी स्थिति में था जहां चारों तरफ पाखंड, छुआछूत, अंधश्रद्धा से भरे कर्मकांड, साम्प्रदायिक उन्माद चरम पर था। आम जनता को धर्म के नाम पर गुमराह किया जाता था।
वैसे तो कबीर की जीवनी का पता नही चलता है पर ऐसा माना जाता है कि कबीर का जन्म 1398 और मृत्यु 1518 में हुई। जिस तरह माता सीता का जन्म पता नही चलता उसी तरह संत कबीर का जन्म भी एक रहस्य बना हुआ है। ऐसा कहा जाता है कि कबीर लीलामय शरीर में बालक रूप में नीरु और नीमा को काशी के लहरतारा तालाब में एक कमल के पुष्प के ऊपर मिले थे। कबीर का जन्म माता पिता से नही हुआ बल्कि वह हर युग में अपने निज धाम सतलोक से चलकर पृथ्वी पर अवतरित होते है।
कबीर बीच बाजार और चौराहे के संत थे। वह अपनी बात लोगों तक पूरे आवेग और प्रखरता के साथ पहुँचाते थे।इसलिए कबीर परमात्मा को देखकर बोलते हैं और आज समाज के जिस युग में हम जी रहे हैं, वहां जातिवाद की कुत्सित राजनीति, धार्मिक पाखंड का बोलबाला, सांप्रदायिकता की आग में झुलसता जनमानस और आतंकवाद का नग्न तांडव, तंत्र-मंत्र का मिथ्या भ्रम-जाल से समाज और राष्ट्र आज भी उबर नहीं पाया है।
उन्होंने लोगों को एकता के सूत्र का पाठ पढ़ाया। उनके दोहे इंसान को जीवन में नई प्रेरणा देते है। कबीर जिस भाषा में अपने दोहे लिखा करते थे वह भाषा सरल और लोक प्रचलित थी। उन्होंने कभी विधिवत शिक्षा ग्रहण नहीं करी थी इसके बावजूद भी वह दिव्य ज्ञानी थे।

हिन्दू तथा मुस्लिम दोनो ही सम्प्रदाय के लोग कबीर के अनुयायी थे। दोनों सम्प्रदायों से उन्हें बराबर सम्मान प्राप्त था। यही कारण था की उनकी मृत्यु के बाद उनके शव को लेकर विवाद खड़ा हो गया था।
उन्होंने हिन्दू , इस्लाम और अन्य धर्मों में व्याप्त कुरीतियों का कड़ा विरोध किया। उन्होंने हिन्दू धर्म में मूर्ति पूजन का विरोध करते हुए कहा था कि “पाथर पूजे हरि मिले तो मैं पुजू पहाड़ घर की चाकी कोई ना पूजे, जाको पीस खाये संसार”
इस्लाम की जड़ पर वार करते हुए उन्होंने कहा “कंकर पत्थर जोड़ कर मस्जिद लई बनाय, ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।”
कबीर ने अपने पूरे जीवनकाल में सद्भाव, एकता, प्रेम कायम करने की कोशिश करी। कबीर दास ने स्वर्ग और नर्क को लेकर समाज में फैले हुए अंधविश्वास को तोड़ने का भी प्रयास किया। अपना पूरा जीवन काशी में बिताने के बाद वह उत्तर प्रदेश के गोराखपुर के पास मगहर चले गए और वहाँ अपनी देह का त्याग कर दिया। वहाँ यह अंधविश्वास फैला हुआ था कि जो यहां मरेगा वह नरक में जाएगा |

देहावसान के बाद उनके हिन्दू और मुस्लिम भक्तों के बीच शव के अंतिम संस्कार को लेकर विवाद खड़ा हो गया। कहते है जब उनके शव पर से चादर हटाई गई तो वहां लोगो को सिर्फ फूलों का ढेर मिला। जिसके बाद आधे फूल से हिंदुओं ने अपनी रीति-रिवाज के मुताबिक और मुस्लिम ने अपनी परंपरा के अनुसार अंतिम संस्कार किया।
बहुजन परंपरा से आने वाले कबीर जैसे महानायकों की वाणी हम सबके लिए किसी प्रेरणा से कम नहीं है। आज उनकी जयंती पर नेशनल इंडिया न्यूज कबीरदास की जयंती पर नमन करता है |
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