होलिका दहन का त्योहार एक असभ्य विकृत समाज का लक्षण
BY_Dr. Siddharth
इस पर पढ़िए वरिष्ठ पत्रकार डॉ. सिद्धार्थ कि कविता
होलिका! मेरी परदादी
होलिका मेरी मां की मां की मां…
मेरी परदादी
तुम पहली स्त्री थी
जिसे आग में झोंकर जलाया गया
फिर तो
स्त्री को जलाने की परंपरा चल पड़ी
कभी सती के नाम पर
कभी कुलटा के नाम पर
कभी दहेज के लिए
मेरी परदादी
दहेज के लिए
तुम्हारी हजारों बेटियां
साल- दर-साल जलाई जाती हैं
जलाने की परंपरा आज भी जारी है
जिसका शिकार
मेरी लाडली बेटी
तुम्हारी पोती भी हो सकती है
तुम्हारे जिस्म के जलने की चिरांध
मुझे आज भी बेचैन करती है
तुम्हारी छटपटाहट
मैं आज भी महसूस करता हूं
घेरकर तुम्हें जलाया गया
तुम्हारे चिल्लान की आवाज
आज भी मुझे सुनाई देती है
मेरी परदादी
वे आज भी हर वर्ष
तुम्हें जलाने का जश्न मनाते हैं
जिसे वे होलिका दहन कहते हैं
जलाने के इस जश्न में
सब शामिल होते हैं
यहां तक तुम्हारी बेटियां-पोतियां भी
मेरी दादी, मनु पुत्रों ने
उमंग, खुशी और रंगों के त्योहार को
होलिकोत्सव नाम दे दिया
मेरी परदादी
तुम्हारा अपराध क्या था
तुमसे इतनी घृणा क्यों
साल-दर-साल
तुम्हें जलाने का जश्न क्यों
जब तक तुम्हें जलाने का जश्न
मनाया जाता रहेगा
कोई-न-कोई स्त्री जलाई जाती रहेगी
क्या तुम्हें जलाए बिना
रंगों का उत्सव नहीं बनाया जा सकता?
ये कविता वरिष्ठ पत्रकार, लेखक डॉ सिद्धार्थ की खुद की कलम से है. नेशनल इंडिया न्यूज का इससे कोई संबंध नही है.
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