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Opinions - Politics - May 22, 2018

हाशिमपुरा को वो दिल दहला देने वाला सच

साकिब सलीम

वो साल 1987 का था, रमज़ान के रोज़े चल रहे थे और ईद से पहले का वो आख़िरी शुक्रवार भी था. लगभग एक साल से मेरठ मुस्लिम विरोधी हिंसा का शिकार था. यहाँ एक ख़ास कारण है कि मैं इस हिंसा को हिंदू-मुस्लिम दंगे नहीं कह रहा. दंगे शब्द का प्रयोग ये दर्शाता है कि दो गुटों में हिंसक झड़प हुई पर मेरठ में ऐसा कुछ कभी हुआ ही नहीं, बल्कि सच कहा जाये तो आज़ाद भारत के इतिहास में कम ही ऐसा हुआ है कि हिंदू और मुसलमान आपस में हिंसा करें. अधिकतर देखा ये गया है कि सरकारी मशीनरी, जिसमें एक अहम किरदार पुलिस का होता है, मुसलमानों पर हिंसात्मक अत्याचार करती है.

हां तो बात हो रही थी मेरठ की. बाबरी मस्जिद के ताले राजीव गाँधी सरकार द्वारा खोले जाने के बाद से ही लगातार शहर में हिंसा हो रही थी. शहर के मोहल्ले मलियाना में दंगाइयों की भीड़ के साथ पी.ए.सी ने मुसलमानों के घरों में हमला किया था जिसमें दर्जनों मुसलमान मारे गए थे. पर इस से भी भयावह कुछ होना था. कुछ ऐसा जो कि पुलिस फायरिंग, और बेवजह गिरफ्तारियों से भी ख़तरनाक था.

22 मई, 1987 दिन शुक्रवार, यानी रमज़ान का अलविदा जुमा. पी.ए.सी कि 41 वीं बटालियन के जवान मोहल्ला हाशिमपुरा में आते हैं और 46 मुस्लिम पुरुषों को गिरफ्तार कर ट्रक में बिठा लेते हैं. इन 46 लोगों को लगता है कि उनको गिरफ्तार किया जा रहा है और रात भर हवालात में रख कर छोड़ दिया जायेगा. परंतु ऐसा नहीं होता. पी.ए.सी के जवान इस ट्रक को मेरठ से सटे ज़िला गाज़ियाबाद के मुरादनगर और मकनपुर इलाक़ों में ले जाती है. पहले ट्रक को मकनपुर लाया जाता है आधे लोगों को वहां उतर कर गंग नहर के किनारे खड़ा कर दिया जाता है. फिर पी.ए.सी के जवान एक एक कर के सब को गोली मार देते हैं. जब उनको तसल्ली हो जाति है कि सब मर चुके है तो वे ट्रक को मुरादनगर में नहर के किनारे ले जाते हैं. वहां बचे हुए लोगों को ऐसे ही गोलियों से भून दिया जाता है.

इसके बाद ये पी.ए.सी के ‘बहादुर’ जवान आराम से अपने बटालियन में जा कर सो जाते हैं.

ये ख़बर जब तत्कालीन गाज़ियाबाद के पुलिस अधीक्षक ‘विभूति नारायण राय’ को पहुँचती है तो वे मौके पर आते हैं और बाबुदीन नाम के एक जिंदा बच गए व्यक्ति का बयान दर्ज करते हैं.

पर इसके बाद क्या होता है? ये भारत की आज तक की सबसे बड़ी पुलिस हिरासत में मौत की घटना है. माना कि 1984 में सिखों के जनसंहार, नेल्ली जनसंहार, और मेरठ के ही मलियाना में भी पुलिस की भूमिका थी परन्तु वहां कम से कम मरने वाले पुलिस हिरासत में नहीं थे.

पुलिस ने निहत्थे मुसलमानों को हिरासत में लिया और उनकी नृशंस हत्या कर दी. प्रथिमिकी उस ही दिन दर्ज होने के बावजूद मुक़दमा शुरू न हुआ.

प्रदेश में कांग्रेस के वीर बहादुर सिंह मुख्यमंत्री थे और दिल्ली में राजीव गाँधी थे. 1984 के सिख दंगों से शुरू कर के भागलपुर तक जो पांच साल राजीव गाँधी की सत्ता थी वह भारतीय अल्पसंख्यकों के लिए भयावह के अलावा कुछ नहीं कही जा सकती. उत्तर प्रदेश में पी.ए.सी खुलेआम मुसलमानों का जनसंहार कर रही थी और सरकार उसकी तारीफ़ कर रही थी. जब 30 मई को राजीव गाँधी मेरठ पहुंचे तो उनकी जनसभा में कांग्रेस के स्थानीय नेताओं ने ‘पी.ए.सी जिंदाबाद’ के नारे लगाये. आप समझ ही सकते हैं कि ये नारे उनके किस अच्छे काम के लिए लगे थे.

ऐसा नहीं कि इसका हर्जाना कांग्रेस ने नहीं भुगता. बिहार की जनता ने भागलपुर का और उत्तर प्रदेश ने मेरठ, अलीगढ़, मुरादाबाद, अदि का बदला कांग्रेस को सत्ता के बाहर फेंक कर किया. प्रदेश में चुनाव के बाद मुलायम सिंह यादव सत्ता में आये, फिर भाजपा के कल्याण, फिर मायावती, फिर वापस कल्याण, फिर राजनाथ और अखिलेश तक हार दल के नेता सत्ता में आये. इनमें ‘समाजवादी’, ‘अम्बेडकरवादी’ ‘हिंदुवादी’ सभी प्रकार के दल थे. पर हाशिमपुरा को न्याय की आस एक आस ही रही.

मुक़दमा शुरू होने में ही आठ साल लग गए और 21 मार्च 2017 को सबूतों के अभाव में सभी पी.ए.सी जवानों को बरी कर दिया गया. सरकारें मुसलमानों की लाशों को लेकर कितनी संवेदनशील हैं इसका अंदाज़ा इस बात से होता है कि जो 37 जवान नामज़द थे, वो न कभी निलंबित हुए, उनको पेंशन मिली, और कुछ को बहादुरी के तमगे भी. इनमें वे जवान भी शामिल हैं जिनके बारे में अदालत में ये कहा गया कि पुलिस उनको पकड़ने में असफल रही है.

कुल मिलाकर हाशिमपुरा के ये शहीद हमें बस ये सबक देते हैं कि मुसलमानों का वोट लेने वाली पार्टियों ने भी कभी उनको इंसाफ़ तो नहीं दिया.

इस हिंसा में मेरठ के रहने वाले उर्दू के मशहूर शायर बशीर बद्र ने अपना घर जला दिए जाने पर एक शेर कहा था;

“बड़े शौक़ से मेरे घर जला, कोई आंच तुझ पे न आएगी

ये जुबां किसी ने ख़रीद ली, ये क़लम किसी का ग़ुलाम है”

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