Home Social आज है मिर्जा गालिब का जन्मदिन, पढ़िए गालिब की सबसे लोकप्रिय शायरी
Social - State - December 27, 2017

आज है मिर्जा गालिब का जन्मदिन, पढ़िए गालिब की सबसे लोकप्रिय शायरी

नई दिल्ली। मिर्जा गालिब एक ऐसे शायर जिन्हें इस दुनिया से रुखसत हुए सदियां गुजर गई। लेकिन वो आज भी अपने कलाम, अपनी शेर-ओ-शायरी की बदौलत हमारे दिलों में जिंदा है। गालिब उन मशहूर शायरों में से हैं जिनका कोई सानी नहीं है। दुनिया के सबसे अजीम शायर असदउल्लाबेग खां उर्फ मिर्जा गालिब का आज जन्मदिन है. गालिब के बारे में कहा जाता है कि वो खड़े-खड़े शायरी बना लेते थे और ऐसे पढ़ते थे कि महफिलों में भूचाल आ जाते थे, जिन्हें इस दुनिया के सबसे मुकम्मल शेर कहा जाता है।

27 दिसंबर 1796 को आगरा में जन्‍मे गालिब के पूर्वज तुर्की से भारत आए थे। गालिब के दादा के दो बेटे व तीन बेटियां थी। मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग खान व मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग खान उनके बेटों का नाम था। मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग खान गालिब के वालिद साहब थे।

शिक्षा

गालिब की शुरुआती शिक्षा के बारे मे स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन ग़ालिब के अनुसार उन्होने 11 वर्ष की अवस्था से ही उर्दू एवं फ़ारसी मे गद्य और पद्य लिखना शुरू कर दिया था।

विवाह

13 साल की उम्र मे गालिब का विवाह नवाब ईलाही बख्श की बेटी उमराव बेगम से हो गया था। ग़ालिब विवाह के बाद दिल्ली आ गये और आख़िरी वक्त तक दिल्ली में रहे। विवाह के बाद ‘ग़ालिब’ की आर्थिक कठिनाइयां बढ़ती ही गईं।

आखिरी सांस

15 फरवरी 1869 को गालिब ने आखिरी सांस ली। उन्हें दिल्ली के निजामुद्दीन बस्ती में दफनाया गया। उनकी कब्रगाह को मजार-ए-गालिब के नाम से जाना जाता है। ग़ालिब पुरानी दिल्ली के जिस मकान में रहते थे, उसे गालिब की हवेली के नाम से जाना जाता है।

शायरी के कद्रदान ग़ालिब को कुछ इसी तरह याद करते हैं।

ग़ालिब वक्त की धूल में खोने वाले शाय़र नहीं है। आज भी उर्दू हो या हिन्दी, दोनों भाषा की शायरी करने वालों को गालिब से बहुत कुछ सीखने को मिलता है। आज भी हर प्यार करने वालों के दिल में ग़ालिब का दिल धड़कता है। गालिब को पढ़ने वाले लोग जमाने की परवाह नहीं करते वो तो बस वही करते हैं जो उन्हें सही लगता है बिलकुल ग़ालिब के कुछ इन शायरियों की तरह…

‘हैं और भी दुनिया में सुख़न्वर बहुत अच्छे,

कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़-ए बयां और’

 

‘फ़िक्र-ए-दुनिया में सर खपाता हूं,

मैं कहां और ये बवाल कहां’

 

तू तो वो जालिम है जो दिल में रह कर भी मेरा न बन सका ग़ालिब,

और दिल वो काफिर, जो मुझ में रह कर भी तेरा हो गया,

 

दिल ए नांदा तुझे हुआ क्या है,

आखिर इस दर्द की दवा क्या है.

 

रगों में दौड़ने फिरने के हम नही कायल,

जब आंख ही से नहीं टपके फिर लहू क्या है..

 

उन के देखे से आ जाती है मुंह पर रौनक

वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है..

 

हजारों ख्वाइंसे ऐसी कि हर ख्वाइस पे दम निकले

बहुत निकले मेरे आरमां लेकिन फिर भी कम निकले..

 

मोहब्बत में नहीं है फर्क जीने औऱ मरने का

उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले

 

ग़ालिब की ज़िदगी भी उनके इन्हीं शेर की तरह मुसीबतों से भरी रही।

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